गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2. भक्ति -ज्ञान -समन्वय
ऊपर उठने के लिये प्रथम आवश्यक सोपान ऊर्ध्वमुखी प्रकृति और उच्चतर धर्म की की अभीप्सा करना, कामेच्छा की अपेक्षा किसी महत्तर विधान का पालन करना, और अहंकार से बड़े और श्रेष्ठ देवता को जानना और पूजना, सद्विचार से युक्त होना और सत्कर्म का कर्मी बनना ही है। पर इतना ही बस नही है; क्योंकि सात्त्विक मनुष्य भी गुणों के चक्कर में बंधा रहता है, क्योंकि अब भी वह राग-द्वेष के द्वारा ही नियंत्रित होता है। वह प्रकृति के नानारूपों के चक्र में घूमता रहता है, उसे उच्चतम, परम और समग्र ज्ञान प्राप्त नहीं होता। तथापि सदाचार-संबंधी अपने लक्ष्य की ओर अपनी निरंतर ऊर्ध्वमुखीन अभीप्सा के बल से वह अंत में पाप के मोह से-जो पाप रजोगुण से उत्पन्न काम-क्रोध से ही पैदा होता है, उससे-मुक्त होता और अपनी प्रकृति को ऐसी विशुद्ध बना लेता है कि वह उसे त्रिगुणात्मिका माया के विधान से छुड़ा देती हैं पुण्य से ही कोई परम को नहीं पा सकता, पर पुण्य से[1]स्पष्ट ही सच्चे आंतरिक पुण्य से विचार, भाव, चित्तवृत्ति, हेतु आचार की सात्त्विक विशुद्धि से, केवल रूढ़ि या सामाजिक रिति-रिवाज से नहीं। वह उसे पाने का ‘अधिकारी’ होता है। अधकचरे राजस या कुन्द तामस अहंकार को हटा देना और उससे ऊपर उठना बड़ा कठिन होता है; सात्त्विक अहंकार को हटाना या उससे ऊपर उठना उतना कठिन नहीं होता और अभ्यास से जब अंत में वह यथेष्ट रूप से सूक्ष्म और प्रकाशयुक्त हो जाता है तब उसे पार कर जाना, उसे रूपांतरित करना या मिटा देना भी आसान हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्पष्ट ही, सच्क्स्हे आंतरिक पुण्य से विचार, भाव, चित्तवृत्ति, हेतु और आचार की सात्त्विक विशुद्धि से, केवल रूढ़ि या सामाजिक रीति-रिवाज से नहीं।
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