गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 241

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

24.कर्मयोग का सारतत्त्व


अर्जुन के सामने उस काल के उच्चतम आदर्श के अनुसार ऐसा ही एक व्यावहारिक समाधान पेश किया गया, पर उसकी चित्त-वृत्ति उसे स्वीकार करने के अनुकूल नहीं थी और वास्तव में भगवान् भी नहीं चाहते थे कि वह उसे स्वीकार कर ले। अतः गीता इस प्रश्न का समाधान बिलकुल दूसरे ही दृष्टिकोण से करती है और इसका बिलकुल दूसरा ही हल निकालती है। गीता का समाधान यही है कि अपनी प्राकृत सत्ता और साधारण मनोभाव से उपर, अपने बौद्धिक और नैतिक भ्रमजालों के उपर उस चिद्भाव में उठो जहाँ का जीवन-विधान कुछ और ही है और इसलिये वहाँ कर्म का विचार भी एक और ही दृष्टि से किया जाता है; वहाँ कर्म के चालक वैयक्तिक कामना और भावावेग नहीं होते; द्वन्द्व दूर हो जाते हैं; कर्म हमारे अपने नहीं रह जाते; और इसलिये हम वैयक्तिक पाप और पुण्य को अतिक्रम कर जाते हैं। वहाँ विराट् नैव्र्यक्तिक भागवत सत्ता हमारे द्वारा जगत् में अपने हेतु को क्रियान्वित करती है; हम स्वयं एक दिव्य नवजन्म के द्वारा उसी सत् के सत्, उसी चित् के चित्, उसी आनंद के आनंद हो जाते हैं और तब हम अपनी इस निम्न प्रकृति में नहीं रहते, हमारे लिये कोई अपना कर्म नहीं रहता, कोई अपना वैयक्तिक हेतु नहीं रह जाता और यदि हम कर्म करते ही हैं- और यही तो एकमात्र वास्तविक समस्या और कठिनाई रह जाती है-तो वह केवल भागवत कर्म होता है।

जिसमें बाह्य प्रकृति कर्म का कारण या प्रेरक नहीं, केवल एक अबाध शांत उपकरण मात्र होती है, क्योंकि प्रेरक-शक्ति तो हमारे कर्मों के अधीश्वर की इच्छा में हमारे उपर रहती है। गीता ने इसीको सच्चे समाधान के रूप में सामने रखा है, क्योंकि यह हमें सत्ता के वास्तविक सत्य में ले जाता है और अपनी सत्ता के वास्तविक सत्य के अनुसार जीना ही स्पष्टतया जीवन के प्रश्नों का संपूर्णतः सर्वोत्कृष्ट और एकमात्र सत्य-समाधन है। हमारा मनोमय और प्राणमय व्यक्तित्व हमारे प्राकृत जीवन का सत्य है, पर यह सत्य अज्ञानगत सत्य है और जो कुछ उससे संबद्ध है वह उसी कोटि का सत्य है जो अज्ञानगत कर्मों के लिये व्यवहारतः मान्य है, पर जब हम अपनी सत्ता के यथार्थ सत्य में लौट आते हैं तब यह सत्य मान्य नहीं रहता। परंतु हमें इस बात का पूर्ण निश्चय कैसे हो कि यही सत्य है? पूर्ण निश्चय तब तक नहीं हो सकता जब तक हम अपने मन के सामान्य अनुभवों से ही संतुष्ट हैं; कारण हमारे सामान्य मानस अनुभव सर्वथा निम्न प्रकृति के हैं जो अज्ञान से भरी पड़ी हैं। हम उस महत् सत्य को उसमें निवास करके अर्थात् योग के द्वारा मन-बुद्धि को पार करके आध्यात्मिक अनुभव में पहुँचने पर ही जान सकते हैं। कारण, आध्यात्मिक अनुभूति के बाह्य में तब तक निवास करना जब तक कि हम मानसभाव से छूटकर आत्मभाव में प्रतिष्ठित न हो जायें, तब तक अपनी वर्तमान प्रकृति के दोषों से मुक्त होकर अपनी यथार्थ और भागवत सत्ता में पूर्ण रूप से रहने न लग जायें, वह अंतिम भाव है जिसे हम योग कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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