गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द24.कर्मयोग का सारतत्त्व
परंतु ये दोनों बातें कार्यतः एक ही हैं क्योंकि एक को समझने से दूसरी समझ में आ ही जाती है। हमारे कर्म के भाव का उदय हमारी सत्ता के स्वभाव तथा उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा से होता है; परंतु स्वयं यह स्वभाव भी हमारे कर्म की धारा और उसके आध्यात्मिक प्रभाव से प्रभावित होता है; कर्म के भाव में बहुत बड़ा परिवर्तन हमारी सत्ता के स्वभाव में और उसकी आंतरिक प्रतिष्ठा में परिर्तन लाता है; यह सचेतन शक्ति उस केन्द्र को बदल देता है जिससे हम कर्म करते हैं। यदि जीवन और कर्म केवल मिथ्या-माया होते, जैसा कि कुछ लोग कहा करते हैं, यदि आत्मा का कर्म या जीवन के साथ कोई सरोकार न होता तो यह बात न होती; पर हमारे अंदर जो देही जीव है वह जीवन और कर्मों से अपने-आपको विकसित किया करता है और स्वयं कर्म तो उतना नहीं, पर जीव की कर्म करने की अतःशक्ति की क्रिया का रूप ही उसकी आत्मसत्ता के साथ उसका संबंध निर्धारित किया करता है। यही आत्मज्ञान के व्यावहारिक साधन-स्वरूप कर्मयोग की सार्थकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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