गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
जीवन के इस पहलू का बड़ा तीव्र अनुभव होने से ही बौद्धों को यह कहना पडा़ कि सब कुछ कर्म ही है और जीवन में कोई आत्मसत्ता नहीं है, आत्मा की भावना तो अहंबुद्धि का केवल एक भ्रम है। अहंकार जब यह सोचता है कि ‘‘मैं इस पुण्य कर्म को चुनता और इसका संकल्प करता हूं, उस पाप कर्म का नहीं” तब वह उसके सिवाय और कुछ नहीं करता कि सत्त्वगुण की किसी प्रधान लहर या सुसंगठित धारा के साथ, जिसके द्वारा प्रकृति बुद्धि को अपना उपकरण बनाकर किसी एक प्रकार के कर्म से किसी दूसरे प्रकार के कर्म को चुनना अधिक पसंद करती है, अपने-आपको शामिल कर लेता है, जैसे कि किसी घूमते हुए पहिये पर बैठी हुई वह मक्खी जो वह समझती है कि मैं ही घूम रही हूँ या किसी कल-पुरजे का एक दांत या एक हिस्सा जो यदि उसे होश होता तो यही समझता कि मैं ही तो घूम रहा हूँ। सांख्य सिद्धांत के अनुसार प्रकृति हमारे अंदर अकर्ता साक्षी पुरुष की प्रशन्नता के लिये स्वयं गठित होती और इच्छा करती है। परंतु इस अत्याचार वर्णन में यदि कोई हेरफेर करना आवश्यक हो, और हम आगे चलकर देखेंगे कि इसका किस अर्थ में हेरफेर करना है, तो भी हमारी इच्छा की स्वाधीनता (यदि हम उसे स्वाधीनता कहना ही पसंद करें) बहुत सापेक्ष और अल्प है, क्योंकि इसके साथ बहुत से नियामक तत्त्व मिले हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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