गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द21.प्रकृति का नियतिवाद
इसके अतिरिक्त मनुष्य के अंदर सत्त्वगुण जागृत है और यह केवल बुद्धि और बुद्धिमत्तापूर्ण संकल्प के रूप में ही काम नहीं करता, बल्कि प्रकाश, सत्यज्ञान और उस ज्ञान के अनुसार सत्य-कर्म के अन्वेषण के रूप में, तथा दूसरों के जीवन और दावों को सहानुभूतिपूर्ण रीति से अनुभव करने और, अपने निजी स्वभाव के उच्चतर धर्म को (जिसकी सृष्टि या सत्त्वगुण ही करता है) जानने व मानकर चलने के प्रयास के रूप में तथा पुण्य, ज्ञान और सहानुभूति जिस महत्तर शांति और सुख को लाते हैं उसके बोध के रूप में भी, काम करता है। मनुष्य थोड़ा-बहुत यह जानता ही है कि उसे अपनी राजसिक और तामसिक प्रकृति पर अपनी सात्त्विक प्रकृति के द्वारा शासन करना है, और यही उसकी सामान्य मनुष्यता की सिद्धि का मार्ग है। परंतु क्या प्रधानतः सात्त्विक स्वभाव की अवस्था स्वाधीनता है और क्या मनुष्य की ऐसी इच्छा स्वाधीन इच्छा है? गीता इस बात को उस चैतन्य की दृष्टि से अस्वीकार करती है, क्योंकि सच्ची स्वाधीनता तो उच्चतर चैतन्य में ही है। बुद्धि, अब भी, प्रकृति का ही उपकरण है और इसका जो कर्म होता है, वह चाहे अत्यंत सात्त्विक हो, पर होता है प्रकृति के द्वारा ही और पुरुष भी माया के द्वारा ही यंत्रारूढ़वत् चलित होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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