गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द16.भगवान् की अवतरण- प्रणाली
प्रकति ने उसे भागवत सत्त्व की अत्यंत मूल्यवान् धातु से सिक्के के रूप में ढाला है, पर उस पर अपने प्राकृत गुणों के मिश्रण का इतना गहरा लेप चढा़ दिया है, अपनी मुद्रा की और पाशविक मानवता के चिह्न की इतनी गहरी छाप लगा दी है कि यद्यपि भागवत भाग का गुप्त चिह्न वहाँ मौजूद है लेकिन वह आरंभ में दिखायी नहीं देता, उसका बोध होना सदा ही दुस्तर होता है, उसका पता चलता है तो केवल आत्म-स्वरूप के रहस्य की उस दीक्षा से जो बहिमुंख मानवता से ईश्वरभिमुख मानवता का पार्थक्य स्पष्ट दिखा देती है। अवतार में अर्थात् दिव्य-जन्मप्राप्त मनुष्य में वह भागवत सत्य लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है; प्रकृति की मुहरछाप वहाँ केवल रूप के लिये होती है, अवतार की दृष्टि अंतःस्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन-शक्ति अंतःस्थित ईश्वर की जीवन-शक्ति होती है, और वह धारण की हुई मानव-प्रकृति की मुहर छाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है ईश्वर का यह चिह्न, अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्म या भौतिक चिह्न न होने पर भी उनके लिये स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती, क्योंकि यह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्य सत्ता को देखती है अंतःसत्ता को नहीं, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरुष को नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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