गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द15.अवतार की संभावना और हेतु
यहाँ पर यह बात जान लेनी चाहिये कि ‘आत्मान’ और ‘भूतानि’ का वेदांतशास्त्र में वही भेद माना गया है जो भेद पश्चात्य दर्शन सत्ता और उसकी संभूति में करता है। दोनों जन्मों में माया ही सृष्टि या अभिव्यक्ति का साधन है, पर दिव्य जन्म में यह ‘आत्ममाया’ है, अज्ञान की निम्नतर माया में संवेष्टन नहीं, बल्कि स्वतः-स्थित परमेश्वर का प्रकृति रूप में अपने-आपको प्रकट करने का सचेतन कर्म है जिसे अपनी क्रिया और अपने हेतु का पूरा बोध है। इसी कर्मशक्ति को गीता ने अन्यत्र योगमाया कहा है। सामान्य प्राणिजन्म में भगवान्, इस योगमाया के द्वारा अपने-आपको निम्नतर चेतना से ढा़ंके और छिपाये रहते हैं, इसलिये यही हमारे अज्ञान का कारण बनती है, यही अविद्या माया है; परंतु फिर इसी योगमाया के द्वारा हमारी चेतना को भगवान् की ओर पलटाकर हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति करायी जाती है, वहाँ यह ज्ञान का कारण बनती और विद्यमाया कहलाती है; और दिव्य जन्म में इसकी क्रिया यह होती है कि जो कर्म सामान्यतः अज्ञान में किये जाते हैं उनको यह स्वयं ज्ञानस्वरूप रहकर संयत और आलोकित करती है। इसलिये गीता की भाषा से यह स्पष्ट होता है कि दिव्य जन्म में भगवान् अपनी अनंत चेतना के साथ मानवजाति में जन्म लेते हैं और यह मूलतः सामान्य जन्म का उलटा प्रकार है-यद्यपि जन्म के साधन वे ही हैं जो सामान्य जन्म के होते हैं-क्योंकि यह अज्ञान में जन्म लेना नहीं, बल्कि यह ज्ञान का जन्म है, कोई भौतिक घटना नहीं बल्कि यह आत्मा का जन्म है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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