गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द15.अवतार की संभावना और हेतु
क्योंकि प्रत्येक सीमा में बाह्य जगत् की क्रिया की एक सीमा बधी होती है और उसके साथ-साथ उसकी बाह्य चेतना की भी एक सीमा लगी रहती है जो जीव के स्वभाव का निरूपण करती और एक-एक जीव के अंदर आंतरिक भेद उत्पन्न कर देती है। अवश्य ही भगवान् इस सबके पीछे रहकर कर्म करते हैं और इस बाह्य अपूर्ण चेतना और संकल्प के द्वारा अपनी विशेष अभिव्यक्तियों का नियमन करते हैं, किन्तु, जैसा कि वेद में कहा गया है, वे अपने-आपको गुहा में छिपाये रहते हैं। गीता इस बात को यूं कहती है कि “ईश्वर सब प्राणियों के हिद्देश में वास करते हैं और सबको माया से यंत्रारूढ़वत् चलाते रहते हैं।”[1] हृदेश में छिपे हुए भगवान्, अहमात्मक प्राकृत चेतना के द्वारा जिस प्रकार कर्म करते हैं, वही जगत् के प्राणियों के साथ ईश्वर की कार्य-प्रणाली है। जब ऐसा ही है, तब हमें यह मानने की क्या अवश्यकता है कि, वे किसी रूप में, यानी प्राकृत चेतना में भी सामने आकार प्रकट होते और प्रत्यक्ष में अपने विरुद्ध चैतन्य के साथ कार्य करते हैं? इसका उत्तर यही है कि यदि भगवान् इस तरह आते हैं तो मनुष्य और अपने बीच के परदे को फाड़ने के लिये आते हैं जिस परदे को अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य उठा तक नहीं सकता। गीता कहती है कि जीव साधारणतया जो अपूर्ण रूप से कर्म करता है उसका कारण यह है कि वह प्रकृति की यांत्रिक क्रिया के वश में होता है और माया के रूपों से बंधा रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18.61
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