गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द12.यज्ञ-रहस्य
मुक्त पुरुष को कर्म से कुछ लेना नहीं है, पर अकर्म से भी उसे कोई लाभ नहीं उठाना है; उसे कर्म और अकर्म में से किसी एक को अपने ही लाभ या हानि की दृष्टि से पसंद नहीं करना है। “इसलिये अनासक्त् होकर सतत कर्तव्य कर्म करो (संसार के लिये, लोक- संग्रह के लिये, जैसा कि आगे उसी सिलसिले में स्पष्ट किया गया है); क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से पुरुष परम को प्राप्त होता है। कर्म के द्वारा ही जनक आदि ने सिद्धि लाभ की। “यह सच है कि कर्म और यज्ञ परम श्रेय के साधक हैं, परंतु कर्म तीन प्रकार के होते हैं; एक वह जो यज्ञ के बिना वैयक्त्कि सुख-भोग के लिये किया जाता है, ऐसा कर्म सर्वथा स्वार्थ और अहंकार से भरा होता है और जीवन के वास्तविक धर्म, ध्येय और उपयोग से वंचित रहता है, वह कर्म जो होता तो है कामना से ही पर यज्ञ के साथ,और इसका भोग केवल यज्ञ के फल-स्परूस्प ही होता है, इसलिये उस हदतक यह कर्म निर्मल और पवित्र है; तीसरा वह कर्म जिसमें कोई कामना या आसक्त् नहीं होती। इसी अतिंम कर्म से जीव परम को प्राप्त होता है, यज्ञ, कर्म और ब्रह्म, इन शब्दों से जो अर्थ हम ग्रहण करें, उसी पर इस दिशा का सम्पूर्ण अर्थ और अभिप्राय निर्भर है। यदि यज्ञ का अर्थ केवल वैदिक यज्ञ ही हो, यदि जिस कर्म से इसका जन्म होता है वह वैदिक कर्म विधि ही हो और यदि वह ब्रह्म जिससे समस्त कर्मों का उद्भव होता है वह वेदों की शब्दराशि रूप शब्दब्रह्म ही जो तो वेदवादियों के सिद्धांत की सब बातें स्वीकृत हो जाती हैं और कुछ बाकी नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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