गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द11.कर्म और यज्ञ
परंतु यदि हम यह मान लें कि ऐसा नहीं किया जा सकता, तो फिर एक ही रास्ता रह जाता है, कि हम कर्म का कोई ऐसा नियम मान लें जो हमारे बाहर हो और हमारे अंत:करण की किसी चीज से परिचालित न होता हो, अर्थात् जो मुमुक्षु है वह वैदिक नित्यकर्म,आनुष्ठानिक यज्ञ, दैनन्दिन कर्म, सामाजिक कर्तव्य आदि किया करे और इन सबको केवल इसलिये करे कि यह शास्त्र की आज्ञा है तथा इनमें वह न तो काई वैयक्तिक हेतु रखे और न आंतरिक रस ले, वह जो कुछ करे सर्वथा उदासीन रहकर करे, प्रकृति के वश होकर नहीं, बल्कि शास्त्र का आदेश समझकर। परंतु यदि कर्मत्व इस प्रकार बाहर की कोइ चीज न होकर अंत:करण की वस्तु हो, यदि मुक्त और ज्ञानी पुरुषों के कर्म भी उनके स्वभाव से ही नियत और निश्चित होते हों, तब तो वह आंतरिक तत्त्व एकमात्र कामना ही हो सकती है, फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो-चाहे वह शरीर की लालसा हो या हृदय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान ध्येय पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही। हो सकती है, फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो चाहे वह शरीर की लालसा हो या ह्र्दय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान ध्येय-पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘नियतं कर्म’ का आजकल जो अर्थ लगाया जाता है, में उसे नहीं आ सकता। नियतं कर्म का अर्थ बंधे-बंधाये और वैध कर्म अर्थात् वेदोक्त याज्ञिक आनुष्ठानिक नित्यकर्म और दिनचर्या नहीं है। निश्चय ही पिछले श्लोक के ‘नियम्य’ शब्द का तात्पर्य लेकर ही इस श्लोक में ‘नियत’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भगवान पहले एक वर्णन करते हैं, "जो कोई मन इन्द्रियों का नियमन करके कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग करता है, वह श्रेष्ठ है (मनसा नियम्य आरभते कर्मयोगम) और यह कहकर फिर तुरत इसी कथन से, इसी के सारांशस्वरूप इसी को विधि बनाते हुए यह आज्ञा देते हैं कि तू नियत कर्म कर, नियतं कुरु कर्म त्वं-'नियतं' शब्द में "नियम्य" को लिया गया है और कुरु कर्म शब्द में आरभते कर्मयोगम को। यहाँ किसी बाह्य विधि द्वारा निश्चित वैध कर्म की बात नहीं है, बल्कि गीता की शिक्षा है मुक्त बुद्धि द्वारा नियत किया हुआ निष्काम कर्म।
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