गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द11.कर्म और यज्ञ
जब मन ही कारण है, अकर्म जब असंभव है, तब यही युत्कि-संगत, आवश्यक और उचित है कि आंतर और ब्राह्म कर्मों को संयम के साथ किया जाये। मन को चाहिये कि ज्ञानेनिद्रयों को मेधावी संकल्प के रूप में अपने वश में करे और कर्मन्द्रियों को उनके उचित कर्म में लगाये, लेकिन ऐसे कर्म में जो योग के रूप में किया जाये। पर इस आत्मसंयम का सारत्तव क्या है, कर्मयोग का अभिप्राय क्या है? कर्मयोग का अभिप्राय है अनासशक्ति कर्म करना, पर मन को इन्द्रियों के विषयों से और कर्मों के फलो से अलिप्त रखना। सम्पूर्ण अकर्म तो भय है, मन की उलझन है, आत्मप्रवंचन है और असंभव है, बल्कि वह कर्म जो पूर्ण और स्वतंत्र हो, इद्रियों और आवेशों के वश होकर न किया गया हो- ऐसा निष्काम और आसक्तिरहित कर्म ही सिद्धि का प्रथम रहस्य है। इस प्रकार भगवान् कहते हैं कि नियत कर्म करो, मैनें यह कहा है कि ज्ञान, बुद्धि, कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है, पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म से अकर्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठ तो अकर्म की अपेक्षा कर्म ही है, कारण ज्ञान का अर्थ कर्म संन्यास नहीं है, ज्ञान का अर्थ है समता, तथा वासना और इन्द्रियों के विषयों से अनासक्ति। और इसका अर्थ बुद्धि का उस आत्मा में स्थिर-प्रतिष्ठा होना जो स्वतंत्र है, प्रकृति के निम्न कर्मों के बहुत ऊपर है और वहीं से मन, इन्द्रियों और शरीर के कर्मों को आत्मज्ञान की तथा आध्यात्मिक अनुभूति के विशुद्ध निर्विषय आत्मानंद की शक्ति द्वारा नियत करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मेरे विचार में मिथ्याचारी का अर्थ पाखंडी नहीं हो सकता। जो अपने शरीर को इतने क्लेश पहुँचाता और भूखों मार डालता है, वह पाखंडी कैसे हो सकता है? वह भूला हुआ है, भ्रम में है, ‘विमूढात्मा’ है और उसका आचार मिथ्या और व्यर्थ है, अवश्य ही गीता का यहाँ यही अभिप्राय है।
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