सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
90. अहिंसा के विकास की चार मंज़िलें
9. अहिंसा का विकास किस तरह होता आया है, यह देखने लायक है। उससे यह समझ में आ जायेगा कि पारमार्थिक जीवन का विकास उत्तरोत्तर किस तरह हो रहा है और उसे अभी कितना अवसर है। पहले अहिंसक मानव यह विचार करने लगा कि हिंसक लोगों के हमले से कैसे बचाव किया जाये? शुरू में समाज की रक्षा के लिए क्षत्रिय-वर्ग बनाया गया; परंतु वही आगे चलकर समाज-भक्षण करने लगा। तब अहिंसक ब्राह्मण यह विचार करने लगे कि इन उन्मत्त क्षत्रियों से समाज का बचाव कैसे किया जाये? परशुराम ने स्वयं अहिंसक होकर भी हिंसा का अवलंबन किया है। वे क्षत्रियों का विनाश करने लगे। क्षत्रिय हिंसा छोड़ दें, इसलिए वे स्वयं हिंसक बने। यह अहिंसा का ही प्रयोग था, परंतु सफल नहीं हुआ। उन्होंने इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया, फिर भी क्षत्रिय बचे ही रहे, क्योंकि यह प्रयोग मूल में ही गलत था। जिन क्षत्रियों को नष्ट करने वे चले थे, उनमें एक और क्षत्रिय की वृद्धि उन्होंने की; तो फिर वह क्षत्रिय-वर्ग नष्ट कैसे होता? वे स्वयं ही हिंसक क्षत्रिय बन गये। वह बीज तो कायम ही रहा। बीज को कायम रखकर पेड़ों को काटने वाले को वे पेड़ पुनः- पुनः पैदा हुए ही दीखेंगे। परशुराम थे भले आदमी, परंतु उनका प्रयोग बड़ा विचित्र हुआ। स्वयं क्षत्रिय बनकर वे पृथ्वी को निःक्षत्रिय बनाना चाहते थे। वस्तुतः उन्हें अपने से ही प्रयोग शुरू करना चाहिए था। उन्हें चाहिए था कि पहले वे अपना ही सिर उड़ा देते। मैं जो यहाँ परशुराम का दोष दिखा रहा हूं, उसका यह अर्थ नहीं कि मैं उनसे ज्यादा बुद्धिमान हूँ। मैं तो बच्चा हूं, परंतु उनके कंधे पर खड़ा हूँ। इससे मुझे अनायास ही अधिक दूर का दिखायी देता है। परशुराम के प्रयोग का आधार ही गलत था। हिंसामय होकर हिंसा दूर करना संभव नहीं। इससे उल्टे हिंसकों की संख्या ही बढ़ती है। परंतु उस सयम यह बात ध्यान में नहीं आयी। उस समय के भले-भले आदमियों ने, परम अहिंसामय व्यक्तियों ने, जैसा उन्हें सूझा, प्रयोग किया। परशुराम उस काल के महान अहिंसावादी थे। हिंसा के उद्देश्य से उन्होंने हिंसा नहीं की। अहिंसा की स्थापना के लिए उन्होंने हिंसा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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