गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 216

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अठारहवां अध्याय
उपसंहार
फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद
101. अर्जुन का अंतिम प्रश्न

1. मेरे भाइयो, आज ईश्वर की कृपा से हम अठारहवें अध्याय तक आ पहुँचे हैं। प्रतिक्षण बदलने वाले इस विश्व में किसी भी संकल्प को पूर्णता तक ले जाना परमेश्वर की इच्छा पर निर्भर है। इसमें भी जेल में तो कदम-कदम पर अनिश्चितता का अनुभव आता है। यहाँ कोई काम शुरू करने पर फिर यहीं उसके पूरा हो जाने की अपेक्षा रखना कठिन है। आरंभ करते समय ऐसी अपेक्षा नहीं थी कि हमारी यह गीता यहाँ पूरी हो सकेगी। लेकिन ईश्वर-इच्छा से हम समाप्ति तक आ पहुँचे हैं।

2. चौदहवें अध्याय में जीवन के अथवा कर्म के सात्त्विक, राजस और तामस, ये तीन भेद किये गये। इन तीनों में से राजस और तामस का त्याग करके सात्त्विक को ग्रहण करना है, यह भी हमने देखा। उसके बाद सत्रहवें अध्याय में यही बात दूसरे ढंग से कही गयी है। यज्ञ, दान और तप या एक ही शब्द में कहें, तो ‘यज्ञ’ ही जीवन का सार है। सत्रहवें अध्याय में हमने ऐसी ध्वनि सुनी कि यज्ञोपयोगी जो आहारादि कर्म हैं, उन्हें सात्त्विक और यज्ञरूप बनाकर ही ग्रहण करें। केवल उन्हीं कर्मो को अंगीकार करें, जो यज्ञ रूप और सात्त्विक हैं, शेष कर्मों का त्याग ही उचित है। हमने यह भी देखा है कि ‘ऊँ तत्सत्’ मंत्र को क्यों स्मरण रखना चाहिए ‘ऊँ’ का अर्थ है सातत्य। ‘तत्’ का अर्थ अलिप्तता और ‘सत्’ का अर्थ है सात्त्विकता। हमारी साधना में सातत्य, अलिप्तता और सात्त्विकता होनी चाहिए। तभी वह परमेश्वर को अर्पण की जा सकेगी। इन सब बातों से ध्यान में आता है कि कुछ कर्म तो हमें करने हैं और कुछ का त्याग करना है।

गीता की सारी शिक्षा पर हम दृष्टि डालें, तो स्थान-स्थान पर यही बोध मिलता है कि कर्म का त्याग मत करो। गीता कर्म-फल के त्याग की बात कहती है। गीता में सर्वत्र यही शिक्षा दी गयी है कि कर्म तो सतत करो, परंतु फलका त्याग करते रहो; लेकिन यह एक पहलू हुआ। दूसरा पहले यह मालूम पड़ता है कि कुछ कर्म किये जायें और कुछ का त्याग किया जाये। अतः अंततः अठारहवें अध्याय में आरंभ में अर्जुन ने प्रश्न किया- ‘एक पक्ष तो यह कि कोई भी कर्म फल-त्यागपूर्वक करो और दूसरा यह कि कुछ कर्म तो अवश्यमेव त्याज्य हैं और कुछ करने योग्य हैं, इन दोनों में मेल कैसे बिठाया जाये?‘ जीवन की दिशा स्पष्ट जानने के लिए यह प्रश्न है। फल-त्याग का मर्म समझने के लिए यह प्रश्न है। जिसे शास्त्र ‘संन्यास’ कहता है, उसमें कर्म स्वरूपतः छोड़ना होता है। अर्थात कर्म के स्वरूप का त्याग करना होता है। फलत्याग में कर्म का फलतः त्याग करना होता है। अब प्रश्न यह कि क्या गीता के फलत्याग को प्रत्यक्ष कर्म-त्याग की आवश्यकता है? क्या फल-त्याग की कसौटी में संन्यास का कोई उपयोग है? संन्यास की मर्यादा कहाँ तक है? संन्यास और फल-त्याग, इन दोनों की मर्यादा कहाँ तक और कितनी है? अर्जुन का यही प्रश्न है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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