गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 32

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
17. बाह्य कर्म मन का दर्पण

1. संसार बड़ा भयानक है। बहुत बार उसे समुद्र की उपमा दी जाती है। समुद्र में जहाँ देखिए, पानी-ही-पानी दिखायी देता है। वही हाल संसार का है। संसार सर्वत्र भरा हुआ है। यदि कोई व्यक्ति घरबार छोड़कर सार्वजनिक सेवा में लग जाता है, तो वहाँ भी उसके मन में संसार अपना अड्डा जमाये बैठा मिलता है। कोई यदि गुफा में जाकर बैठ जाये, तो भी उसकी बित्ते भर लंगोटी में संसार ओतप्रोत रहता है। वह लंगोटी उसकी ममता का सार-सर्वस्व बन बैठती है। जैसे छोटे से नोट में हजार रुपये भरे रहते हैं, वैसे ही उस छोटी-सी लंगोटी में भी अपार आसक्ति भरी रहती है। घर-प्रपंच छोड़ा, विस्तार कम किया, तो इतने से संसार कम नहीं हो गया। 10/25 कहो या 2/5 कहो, दोनों का मतलब एक ही है। चाहे घर में रहो या वन में, आसक्ति तो पास ही रहती है। संसार लेशमात्र भी कम नहीं होता। दो योगी भले ही हिमालय की गुफा में जाकर बैठ जायें, पर वहाँ भी एक-दूसरे की कीर्ति उनके कानों में जा पड़े, तो वे जल-भुन जायेंगे। सार्वजनिक सेवा के क्षेत्र में भी ऐसा ही दृश्य दिखायी देता है।

2. इस प्रकार यह संसार हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ा है, जिससे स्वधर्माचरण की मर्यादा रहते हुए भी संसार से पिंड नहीं छूटता। बहुतेरा उखाड़-पछाड़ करना छोड़ दिया और झंझटे भी कम कर दीं, अपना संसार-प्रपंच भी छोटा कर दिया, तो भी वहाँ पूरा ममत्व भरा रहता है। राक्षस जैसे कभी छोटे हो जाते तो कभी बड़े, वही हाल इस संसार का है। छोटे हों या बड़े, आखिर वे हैं तो राक्षस ही! चाहे महलों में हो या झोपड़ी में, दुर्निवारत्व एक-सा ही है। स्वधर्म का बंधन डालकर यद्यपि संसार-प्रपंच को मर्यादित रखा, तो भी वहाँ अनेक झगड़े पैदा हो जायेंगे और आपका जी वहाँ से ऊब उठेगा। वहाँ भी अनेक संस्थाओं और अनेक व्यक्तियों से आपका सम्बन्ध आयेगा और आप त्रस्त हो जायेंगे। लगेगा, ‘कहां इस आफत में आ फंसे!’ लेकिन आपका मन कसौटी पर भी तभी चढ़ेगा। केवल स्वधर्माचरण को अपनाने से ही अलिप्तता नहीं आ जाती। कर्म की व्याप्ति को कम करना ही अलिप्त होना नहीं है।

3. फिर अलिप्तता कैसे प्राप्त हो? उसके लिए मनोमय प्रयत्न जरूरी है। मन का सहयोग जब तक न हो, तब तक कोई भी बात सिद्ध नहीं हो सकती। मां-बाप किसी संस्था में अपना लड़का भेज देते हैं। वह वहाँ सबेरे उठता है, सूर्य-नमस्कार करता है, चाय नहीं पीता। परन्तु घर आते ही दो-चार दिनों में वह सब कुछ छोड़ देता है; ऐसे अनुभव हमें आते हैं। मनुष्य कोई मिट्टी का ढेला तो है नही। उसके मन को हम जो आकार देना चाहते हैं, वह उसके मन में बैठना तो चाहिए न ? मन यदि वह आकार स्वीकारता नहीं, तो कहना होगा कि बाहर की वह सारी तालीम व्यर्थ गयी, इसलिए साधना में मानसिक सहयोग की बहुत आवश्यकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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