गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 101

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दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
49. गीता के पूर्वार्ध पर दृष्टि

1. मित्रों, गीता का पूर्वार्ध समाप्त हो गया। उत्तरार्ध में प्रवेश करने के पहले जो भाग हम समाप्त कर चुके, उसका थोड़े में सार देख लें, तो अच्छा होगा। पहले अध्याय में बताया गया कि गीता मोह-नाश के लिए और स्वधर्म में प्रवृत्त कराने के लिए है। दूसरे अध्याय में जीवन के सिद्धांत, कर्मयोग और स्थितप्रज्ञ का दर्शन हमें हुआ। तीसरे, चौथे और पांचवें अध्याय मे कर्म, विकर्म और अकर्म का स्पष्टीकरण हुआ। कर्म का अर्थ है- स्वधर्माचरण करना। विकर्म का अर्थ है- वह मानसिक कर्म जो बाहर से स्वधर्माचरण का कर्म करते हुए उसकी सहायता के लिए किया जाता है। कर्म और विकर्म, दोनों के एकरूप होने पर जब चित्त की पूर्ण शुद्धि हो जाती है, सब प्रकार के मैल धुल जाते हैं, वासना जाती रहती है, विकास शांत हो जाते हैं, भेद-भाव मिट जाता है, तब अकर्म-दशा प्राप्त होती है। यह अकर्म-दशा भी दो प्रकार की बतायी गयी है। इसका एक प्रकार तो यह कि दिन-रात कर्म करते हुए भी मानो लेशमात्र कर्म न कर रहे हों, ऐसा अनुभव होना। इसके विपरीत दूसरा प्रकार यह कि कुछ भी न करते हुए, सतत कर्म करते रहना। इस तरह अकर्म-दशा दो प्रकारों से सिद्ध होती है। ये दो प्रकार यों अलग-अलग दिखायी देते हैं, तथापि हैं पूर्णरूप से एक ही। इन्हें कर्म-योग और संन्यास, ऐसे दो नाम दिये गये हैं, फिर भी भीतर की सारवस्तु दोनों में एक ही है। अकर्म-दशा अंतिम साध्य, आखिरी मंज़िल है। इस स्थिति को ही ‘मोक्ष’ संज्ञा दी गयी है। अतः गीता के पहले पांच अध्यायों में जीवन का सारा शास्त्र पूरा हो गया।

2. उसके बाद अकर्मरूपी साध्य प्राप्त करने के लिए विकर्म के जो अनेक मार्ग हैं, मन को भीतर से शुद्ध करने के जो अनेक साधन हैं, उनमें से कुछ मुख्य साधन बताने की छठे अध्याय से शुरूआत की गयी है। छठे अध्याय में चित्त का एकाग्रता के लिए ध्यान-योग बताकर अभ्यास और वैराग्य का सहारा उसे दिया गया है। सातवें अध्याय में विशाल भक्तिरूपी उच्च साधन बताया गया है। ईश्वर की ओर चाहे प्रेम-भाव से जाओ, जिज्ञासु-बुद्धि से जाओ, विश्व-कल्याण की व्याकुलता से जाओ या व्यक्तिगत कामना से जाओ- किसी भी तरीके से जाओ, परन्तु एक बार उसके दरबार में पहुँच जरूर जाओ। इस अध्याय का नाम मैंने ‘प्रपत्ति-योग’ अर्थात ‘ईश्वर की शरण जाने की प्रेरणा करने वाला योग’ दिया है। सातवें में प्रपत्ति-योग बताकर आठवें में ‘सातत्य-योग’ बताया हैं मैं जो ये नाम बता रहा हूं, वे पुस्तक में नहीं मिलेंगे। अपने लिए जो उपयोगी नाम मालूम हुए, वही मैं दे रहा हूँ। सातत्य-योग का अर्थ है- अपनी साधना को अंतकाल तक सतत चालू रखना। जिस रास्ते पर एक बार चल पड़े, उसी पर लगातार कदम बढ़ाते जाना। कभी चले, कभी नहीं ऐसा करने से मंज़िल पर पहुँचने की आशा नहीं हो सकती। ऊबकर निराशा से कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि कहाँ तक साधना करते रहें? जब तक फल न मिले, तब तक साधना जारी रखनी चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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