गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 194

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सोलहवां अध्याय
परिशिष्ट-1
दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा
90. अहिंसा के विकास की चार मंज़िलें

10. वह प्रयोग असफल हो गया। बाद में राम का युग आया। उस समय फिर ब्राह्मणों ने विचार शुरू किया। उन्होंने हिंसा छोड़ दी थी और यह निश्चय किया था कि हम स्वंय हिंसा करेंगे ही नहीं। तब राक्षसों के आक्रमणों से बचाव कैसे हो? उन्होंने सोचा कि ये क्षत्रिय तो हिंसा करने वाले हैं ही, इन्हीं राक्षसों का संहार करा डालना चाहिए। कांटे से कांटा निकाल डालना चाहिए। हम स्वतः दूर रहें। अतः विश्वामित्र ने यज्ञ-रक्षणार्थ राम-लक्ष्मण को ले जाकर उनके द्वारा राक्षसों का संहार करवाया।

आज हम ऐसा सोचते हैं कि ‘जो अहिंसा स्व-संरक्षित नहीं है, जिसके पांव नहीं है, ऐसी लंगड़ी-लूली अहिंसा खड़ी कैसे रहेगी?‘ परंतु वसिष्ठ, विश्वामित्र जैसों को क्षत्रियों के बल पर अपनी रक्षा करा लेने में कोई दोष या त्रुटि नहीं मालूम हुई। परंतु यदि राम के जैसा क्षत्रिय न मिला होता तो? विश्वामित्र कहते हैं- ‘मैं भले ही मर जाऊं, पर हिंसा नहीं करूंगा।’ क्योंकि हिंसक बनकर हिंसा दूर करने का प्रयोग हो चुका था। अब इतना तो निश्चय हो ही चुका था कि स्वयं अहिंसा नहीं छोड़ेंगे- यदि कोई क्षत्रिय नहीं मिला, तो अहिंसक व्यक्ति मर जाना पसंद करेंगे- यह भूमिका अब तैयार हो चुकी थी।

अरण्यकांड में एक प्रसंग है। राम पूछते हैं- ‘ये ढेर किस चीज के हैं?‘ ऋषि कहते हैं- ‘ये ब्राह्मणों की हड्डियों के ढेर हैं। अहिंसक ब्राह्मणों ने आक्रमणकारी हिंसक राक्षसों का प्रतिकार नहीं किया। वे मर मिटे। उन्हीं की हड्डियों के ये ढेर हैं।’ इस अहिंसा में ब्राह्मणों का त्याग तो था; परंतु साथ ही दूसरों से अपने सरंक्षण की अपेक्षा भी वे रखते थे। ऐसी कमज़ोरी से अहिंसा पूर्णता को नहीं पहुँच सकती थी।

11. संतो ने आगे चलकर तीसरा प्रयोग किया। उन्होंने निश्चय किया- ‘हम अपने बचाव के लिए दूसरों की सहायता कदापि नहीं लेंगे। हमारी अहिंसा ही हमारा बचाव करेगी। ऐसा बचाव ही सच्चा बचाव होगा।’ संतो का यह प्रयोग व्यक्तिनिष्ठ था। इस व्यक्तिगत प्रयोग को उन्होंने पूर्णता तक पहुँचा दिया, परंतु रहा यह व्यक्तिगत ही। समाज पर यदि हिंसक लोगों के हमले होते और समाज संतों से आकर पूछता कि ‘अब क्या करें?‘ तो शायद संत उसका निश्चित उत्तर न दे पाते। व्यक्तिगत जीवन में परिपूर्ण अहिंसा का पालन करने वाले वे संत समाज से यही कहते- ‘भाई, हम निर्बल हैं।' संतों की यह कमी बताना मेरा बाल-साहस होगा, परंतु उनके कंधे पर बैठकर मुझे जो दीखता है, वही मैं बता रहा हूँ। वे मुझे इसके लिए क्षमा करें और वे कर भी देंगे क्योंकि उनकी क्षमा महान है। अहिंसा के साधनों से सामूहिक प्रयोग करने की उन्हें प्रेरणा नहीं हुई, ऐसा तो नहीं कह सकते; लेकिन उस संयम की परिस्थिति उन्हें शायद अनुकूल न लगी हो। उन्होंने अपने लिए अलग-अलग प्रयोग किये; परंतु ऐसे पृथक्-पृथक् किये हुए प्रयोगों से ही शास्त्र की रचना होती है। सम्मिलित अनुभवों से शास्त्र बनता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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