पंद्रहवां अध्याय
पूर्णयोग: सर्वत्र पुरुषोत्तम-दर्शन
82. प्रयत्न-मार्ग से भक्ति भिन्न नहीं
1. आज एक अर्थ में हम गीता के छोर पर आ पहुँचे हैं। पंद्रहवें अध्याय में सब विचारों की परिपूर्णता हो गयी है। सोलहवां और सत्रहवां अध्याय परिशिष्ट रूप है, अठारहवां उपसंहार है। यही कारण है कि भगवान ने इस अध्याय के अंत में ‘शास्त्र’ संज्ञा दी है। इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ- ऐसा अंत में भगवान ने कहा है। यह इसलिए नहीं कि यह अंतिम अध्याय है, बल्कि इसलिए कि अब तक जीवन के जो शास्त्र, जो सिद्धांत बताये, उनकी परिपूर्णता इस अध्याय में की गयी है। इस अध्याय में परमार्थ पूरा हो गया। वेदों का संपूर्ण सार इसमें आ गया। परमार्थ की चेतना मनुष्य में उत्पन्न कर देना ही वेदों का कार्य हैं वह इस अध्याय में किया गया है, अतः इसे वेद का सार यह गौरवपूर्ण पदवी मिली है। तेरहवें अध्याय में हमने देह से आत्मा को अलग करने की आवश्यकता देखी। चौदहवें में तत्संबंधी प्रयत्नवाद की थोड़ी छानबीन की। रजोगुण और तमोगुण का निग्रहपूर्वक त्याग करें, सत्त्वगुण का विकास करके उसकी आसक्ति को जीत लें, उसके फल का त्याग करें- इस तरह यह प्रयत्न करना है। अंत में कहा गया कि इन प्रयत्नों के सोलहों आने सफल होने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यता है और बिना भक्ति के आत्मज्ञान संभव नहीं। 2. परन्तु भक्ति-मार्ग प्रयत्न-मार्ग से भिन्न नहीं है। यह सूचित करने के लिए इस पंद्रहवें अध्याय के आरंभ में ही संसार को एक महान वृक्ष की उपमा दी गयी है। इस वृक्ष में त्रिगुणों से पोषित प्रचंड शाखाएं फूटी हैं। आरंभ में ही यह कर दिया है कि अनासक्ति और वैराग्यरूपी शस्त्रों से इस वृक्ष को काटना चाहिए। स्पष्ट है कि पिछले अध्याय में जो साधनमार्ग बताया गया है, वही फिर यहाँ आरंभ में दुहराया गया है। रज-तम को मिटाना और सत्त्वगुण की पुष्टि द्वारा अपना विकास कर लेना है। एक विनाशक है, दूसरा विधायक। दोनों को मिलाकर मार्ग एक ही होता है। घास-फूस काटना और बीज बोना दोनों एक ही क्रिया के दो अंग हैं। वैसी ही यह बात है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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