ग्यारहवां अध्याय
विश्वरूप-दर्शन
55. विश्वरूप-दर्शन की अर्जुन की उत्कंठा
1. भाइयों पिछली बार हमने देखा कि इस विश्व की अनंत वस्तुओं में व्याप्त परमात्मा को हम कैसे पहचाने और हमारी आंखों को जो यह विराट प्रदर्शनी दिखायी देती है‚ उसे आत्मसात कैसे करें। पहले स्थूल फिर सूक्ष्म‚ पहले सरल फिर मिश्र, इस प्रकार सब चीजों में भगवान को देखें‚ उसका साक्षात्कार करें‚ अहर्निश अभ्यास करके सारे विश्व को आत्मरूप देखना सीखें– यह हमने‚ पिछले अध्याय में देखा। अब‚ आज ग्यारहवां अध्याय देखना है। इस अध्याय में भगवान ने अपना प्रत्यक्ष रूप दिखाकर अर्जुन पर अपनी परम कृपा प्रकट की है। अर्जुन ने भगवान से कहा– "प्रभो‚ मैं आपका वह संपूर्ण रूप देखना चाहता हूं‚ जिसमें आपका सारा महान प्रभाव प्रकट हुआ हो‚ वह रूप मुझे आंखों से देखने को मिले।" अर्जुन की यह मांग विश्वरूप-दर्शन की थी। 2. हम ‘विश्व’‚ ‘जगत्’‚ इन शब्दों का प्रयोग करते हैं। यह ‘जगत्’ विश्व का एक छोटा-सा भाग है। इस छोटे-से टुकड़े का भी आकलन ठीक से हमें नहीं होता। सारे विश्व की दृष्टि से देखें‚ तो यह जगत् जो हमें इतना विशाल दिखायी देता है‚ अतिशय तुच्छ लगेगा। रात के समय आकाश की ओर जरा दृष्टि डालें तो अनंत गोले दिखायी देते हैं। आकाश के आंगन की वह रंगवल्ली‚ वे छोटे–छोटे सुंदर फूल‚ वे लुक-लुक करने वाली लाखों तारिकाएं इस सबका स्वरूप क्या आप जानते हैं? ये छोटी-छोटी सी तारिकाएं महान‚ प्रचंड हैं। उनके अंदर अनंत सूर्यों का समावेश हो जायेगा। वे रसमय‚ तेजोमय‚ ज्वलंत धातुओं के गोल पिंड हैं। ऐसे इन अनंत पिंडों का हिसाब कौन लगायेगा? न इनका अंत है‚ न पार। ख़ाली आंखों से ये हजारों दीखते हैं। दूरबीन से देखें‚ तो करोड़ों दिखायी देते हैं। उससे बड़ी दूरबीन हो‚ तो परार्धों दीखने लगेंगे और यह समझ में नहीं आयेगा कि आखिर इसका अंत कहाँ है‚ कैसा है? यह जो अनंत सृष्टि ऊपर-नीचे सब जगह फैली हुई है‚ उसका एक छोटा-सा टुकड़ा ‘जगत्’ कहलाता है। परंतु यह जगत् भी कितना विशालकाय दीख पड़ता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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