गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 84

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
41. प्रत्यक्ष अनुभव की विद्या

3. इस अध्याय के आरंभ में ही भगवान कहते हैं- राजविद्या राजगृह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। यह जो राज-विद्या है, यह जो अपूर्व वस्तु है, यह प्रत्यक्ष अनुभव करने की है। भगवान उसे ‘प्रत्यक्षावगम’ कहते हैं। शब्दों में न समाने वाली, परंतु प्रत्यक्ष अनुभव की कसौटी पर कसी हुई यह बात इस अध्याय में बतायी गयी है। इससे यह बहुत मधुर हो गया है। तुलसीदास जी ने कहा है-

को जानैको जैहै जमपुर, को सुरपुर पर-धामको।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन राम-गुलामको॥

मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग और उसकी कथाओं से यहाँ क्या काम? कौन कह सकता है कि स्वर्ग कौन जायेगा, यमपुर कौन? यदि संसार में चार दिन रहना है, तो राम का गुलाम बनकर रहने में ही मुझे आनंद है- ऐसा तुलसीदास जी कहते हैं। राम का गुलाम होकर रहने की मिठास इन अध्याय में है। प्रत्यक्ष इसी देह में, आंखों से अनुभूत होने वाला फल, जीते-जी अनुभव की जानेवाली बातें इस अध्याय में बतायी गयी हैं, तो उसकी मिठास प्रत्यक्ष मालूम होती है। उसी तरह राम का गुलाम होकर रहने की मिठास यहाँ है। इस मृत्युलोक के जीवन का माधुर्य प्रत्यक्ष चखाने वाली यह राज-विद्या इस अध्याय में कही गयी है। वैसे वह गूढ़ है, परंतु भगवान उसे सबके लिए सुलभ करके और खोलकर रख रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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