नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
41. प्रत्यक्ष अनुभव की विद्या
3. इस अध्याय के आरंभ में ही भगवान कहते हैं- राजविद्या राजगृह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्। यह जो राज-विद्या है, यह जो अपूर्व वस्तु है, यह प्रत्यक्ष अनुभव करने की है। भगवान उसे ‘प्रत्यक्षावगम’ कहते हैं। शब्दों में न समाने वाली, परंतु प्रत्यक्ष अनुभव की कसौटी पर कसी हुई यह बात इस अध्याय में बतायी गयी है। इससे यह बहुत मधुर हो गया है। तुलसीदास जी ने कहा है-
को जानैको जैहै जमपुर, को सुरपुर पर-धामको।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन राम-गुलामको॥
मरने के बाद मिलने वाले स्वर्ग और उसकी कथाओं से यहाँ क्या काम? कौन कह सकता है कि स्वर्ग कौन जायेगा, यमपुर कौन? यदि संसार में चार दिन रहना है, तो राम का गुलाम बनकर रहने में ही मुझे आनंद है- ऐसा तुलसीदास जी कहते हैं। राम का गुलाम होकर रहने की मिठास इन अध्याय में है। प्रत्यक्ष इसी देह में, आंखों से अनुभूत होने वाला फल, जीते-जी अनुभव की जानेवाली बातें इस अध्याय में बतायी गयी हैं, तो उसकी मिठास प्रत्यक्ष मालूम होती है। उसी तरह राम का गुलाम होकर रहने की मिठास यहाँ है। इस मृत्युलोक के जीवन का माधुर्य प्रत्यक्ष चखाने वाली यह राज-विद्या इस अध्याय में कही गयी है। वैसे वह गूढ़ है, परंतु भगवान उसे सबके लिए सुलभ करके और खोलकर रख रहे हैं।
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