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आठवां अध्याय
प्रयाण-साधना: सातत्ययोग
36. शुभ संस्कारों का संचय
1. मनुष्य का जीवन अनेक संस्कारों से भरा होता है। हमसे असंख्य क्रियाएं होती रहती हैं। यदि हम उनका हिसाब लगाने लगें, तो उनका अंत ही नहीं आ सकता। यदि मोटे तौर पर हम चौबीस घंटों की ही क्रियाओं को देखने लगें, तो उनकी गिनती भी बहुत अधिक होगी। खाना, पीना, सोना, चलना, फिरना, काम करना, लिखना, बोलना, पढ़ना- इनके अलावा नाना प्रकार के स्वप्न, राग-द्वेष, मानापमान, सुख-दुःख आदि अनंत प्रकार दिखायी देंगे। इन सबके संस्कार हमारे मन पर होते रहते हैं। अतः मुझसे यदि कोई पूछे कि जीवन किसे कहते हैं, तो मैं उसकी व्याख्या करूंगा- संस्कार-संचय।
2. संस्कार अच्छे भी होते हैं, बुरे भी। दोनों का प्रभाव मनुष्य के जीवन पर पड़ता रहता है। बचपन की क्रियाओं की तो हमें याद भी नहीं रहती। सारा बचपन इस तरह मिट जाता है, जैसे स्लेट पर लिखकर पोंछ दिया हो। पूर्वजन्म के संस्कार तो बिलकुल ही साफ पोंछ दिये जैसे हो जाते हैं- यहाँ तक कि इस बात की भी शंका उठ सकती है कि पूर्वजन्म था भी या नहीं। जब इस जन्म का ही बचपन याद नहीं आता, तो फिर पूर्वजन्म की तो बात ही क्या? पूर्वजन्म को जाने दीजिए, हम इसी जन्म का विचार करें।
जितनी क्रियाएं हमें याद रहती हैं, उतनी ही होती हैं, सो बात नहीं। क्रियाएं अनेक होती हैं, और ज्ञान भी अनेक होते हैं; परन्तु ये क्रियाएं और ये ज्ञान मिटकर अंत में कुछ संस्कार ही बच जाते हैं। रात को सोते समय दिन की सब क्रियाओं को यदि हम याद करने लगें तो भी याद नहीं आतीं। कौन-क्रियाएं याद आती है? वे ही क्रियाएं हमारी आंखों के सामने आती हैं, जो बहुत स्पष्ट और प्रभावकारी होती हैं। यदि हमारा किसी से बहुत लड़ाई-झगड़ा हुआ हो, तो वह याद रहता है; क्योंकि उस दिन की वही मुख्य कमाई होती है।
मुख्य और स्पष्ट क्रियाओं के संस्कार मन पर बड़े गहरे हो जाते हैं। मुख्य क्रिया याद रहती है, शेष सब फीकी पड़ जाती हैं। यदि हम रोजनामचा लिखने बैठें तो दो-चार ही महत्त्व की बातें लिखते हैं। यदि प्रतिदिन के ऐसे संस्कारों को लेकर एक हफ्ते का हिसाब लगाने लगें, तो और भी कई बातें उसमें से निकल जायेंगी और सप्ताह की मुख्य घटनाएं ही बच जायेंगी। पिछले महीने का हिसाब लगाने बैठें, तो उतनी ही बातें हमारे सामने आयेंगी, जो उस महीने में मुख्य रही होंगी। इसी तरह फिर छह महीना, साल, पांच साल का हिसाब लगायें, तो बहुत थोड़ी खास-खास बातें याद रहेंगी और उन्हीं के संस्कार बनेंगे। असंख्य क्रियाओं और अनंत ज्ञानों के होने पर भी अंत में मन के पास बहुत थोड़ी बचत रहती है। वे विभिन्न कर्म और ज्ञान आये और अपना काम करके समाप्त हो गये। उन सब कर्मों के पांच-दस दृढ़ संस्कार ही शेष रह जाते हैं।
ये संस्कार ही हमारी पूंजी हैं। हम जीवनरूपी व्यापार करके सिर्फ संस्काररूपी संपत्ति कमाते हैं। जिस प्रकार व्यापारी रोज का, महीने का और साल भर का जमा-नाम करके अंत में लाभ या हानि का एक ही आंकड़ा निकालता है, ठीक वही हाल जीवन का होता है। अनेक संस्कारों का जमा-नाम होते-होते अंत में एक अत्यंत छोटी और सीमित पूंजी बच जाती है। जब जीवन की अंतिम घड़ी आती है, तब जीवन की यह बचत आत्मा याद करने लगता है। जन्म भर में क्या किया, इसकी याद आने पर उसे सारी कमाई दो-चार बातों में दीख पड़ती है। इसका यह अर्थ नहीं कि अन्य सब कर्म और ज्ञान व्यर्थ चले गये। उनका काम पूरा हो गया। हजारों प्रकार के लेन-देन के बाद अंत में कुल पांच हजार का घाटा या दस हजार का नफा, इतना ही सार व्यापारी के हाथ लगता है। घाटा हुआ तो छाती बैठ जाती है, नफा हुआ तो दिल उछलने लगता है।
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