गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 201

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सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
94. सुव्यवस्थित व्यवहार से वृत्ति मुक्त रहती है

1. प्यारे भाइयों, हम धीरे-धीरे अंत तक पहुँचते आ रहे हैं। पंद्रहवें अध्याय में हमने जीवन के संपूर्ण शास्त्र का अवलोकन किया। सोलहवें अध्याय में एक परिशिष्ट देखा। मनुष्य के मन में और उसके मन के प्रतिबिंब स्वरूप समाज में दो वृत्तियों, दो संस्कृतियों अथवा दो संपत्तियों का झगड़ा चल रहा है। इनमें से हमें दैवी संपत्ति का विकास करना चाहिए, यह शिक्षा सोलहवें अध्याय के परिशिष्ट से मिली है। आज सत्रहवें अध्याय में हमें दूसरा परिशिष्ट देखना है। एक दृष्टि से कह सकते हैं कि इसमें कार्यक्रम-योग कहा गया है। गीता इस अध्याय में रोज के कार्यक्रम की सूचना दे रही है। आज के अध्याय में हमें नित्य क्रिया पर विचार करना है।

2. अगर हम चाहते हैं कि हमारी वृत्ति मुक्त और प्रसन्न रहे, तो हमें अपने व्यवहार का एक क्रम बांध लेना चाहिए। हमारा नित्य का कार्यक्रम किसी-न-किसी निश्चित आधार पर चलना चाहिए। मन तभी मुक्त रह सकता है, जबकि हमारा जीवन उस मर्यादा में और एक निश्चित नियमित रीति से चलता रहे। नदी स्वच्छंदता से बहती है, परंतु उसका प्रवाह बंधा हुआ है। यदि वह बद्ध न हो, तो उसकी मुक्तता व्यर्थ चली जायेगी। ज्ञानी पुरुष का उदाहरण अपनी आंखों के सामने लाओ। सूर्य ज्ञानी पुरुषों का आचार्य है। भगवान ने पहले-पहल कर्मयोग सूर्य को सिखाया, फिर सूर्य से मनु को, अर्थात विचार करने वाले मनुष्य को, वह प्राप्त हुआ। सूर्य स्वतंत्र और मुक्त है। वह नियमित है- इसी में उसकी स्वतंत्रता का सार है। यह हमारे अनुभव की बात है कि हमें एक निश्चित रास्ते से घूमने जाने की आदत है, तो रास्ते की ओर ध्यान न देते हुए भी मन से विचार करते हुए हम घूम सकते हैं। यदि घूमने के लिए हम रोज नये-नये रास्ते निकालते रहेंगे, तो सारा ध्यान उन रास्तों में लगाना पड़ेगा। फिर मन को मुक्तता नहीं मिल सकती। सारांश यह कि हमें अपना व्यवहार इसीलिए बांध लेना चाहिए कि जीवन एक बोझ सा नहीं, बल्कि आनंदमय प्रतीत हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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