सत्रहवां अध्याय
परिशिष्ट-2
साधक का कार्यक्रम
94. सुव्यवस्थित व्यवहार से वृत्ति मुक्त रहती है
1. प्यारे भाइयों, हम धीरे-धीरे अंत तक पहुँचते आ रहे हैं। पंद्रहवें अध्याय में हमने जीवन के संपूर्ण शास्त्र का अवलोकन किया। सोलहवें अध्याय में एक परिशिष्ट देखा। मनुष्य के मन में और उसके मन के प्रतिबिंब स्वरूप समाज में दो वृत्तियों, दो संस्कृतियों अथवा दो संपत्तियों का झगड़ा चल रहा है। इनमें से हमें दैवी संपत्ति का विकास करना चाहिए, यह शिक्षा सोलहवें अध्याय के परिशिष्ट से मिली है। आज सत्रहवें अध्याय में हमें दूसरा परिशिष्ट देखना है। एक दृष्टि से कह सकते हैं कि इसमें कार्यक्रम-योग कहा गया है। गीता इस अध्याय में रोज के कार्यक्रम की सूचना दे रही है। आज के अध्याय में हमें नित्य क्रिया पर विचार करना है। 2. अगर हम चाहते हैं कि हमारी वृत्ति मुक्त और प्रसन्न रहे, तो हमें अपने व्यवहार का एक क्रम बांध लेना चाहिए। हमारा नित्य का कार्यक्रम किसी-न-किसी निश्चित आधार पर चलना चाहिए। मन तभी मुक्त रह सकता है, जबकि हमारा जीवन उस मर्यादा में और एक निश्चित नियमित रीति से चलता रहे। नदी स्वच्छंदता से बहती है, परंतु उसका प्रवाह बंधा हुआ है। यदि वह बद्ध न हो, तो उसकी मुक्तता व्यर्थ चली जायेगी। ज्ञानी पुरुष का उदाहरण अपनी आंखों के सामने लाओ। सूर्य ज्ञानी पुरुषों का आचार्य है। भगवान ने पहले-पहल कर्मयोग सूर्य को सिखाया, फिर सूर्य से मनु को, अर्थात विचार करने वाले मनुष्य को, वह प्राप्त हुआ। सूर्य स्वतंत्र और मुक्त है। वह नियमित है- इसी में उसकी स्वतंत्रता का सार है। यह हमारे अनुभव की बात है कि हमें एक निश्चित रास्ते से घूमने जाने की आदत है, तो रास्ते की ओर ध्यान न देते हुए भी मन से विचार करते हुए हम घूम सकते हैं। यदि घूमने के लिए हम रोज नये-नये रास्ते निकालते रहेंगे, तो सारा ध्यान उन रास्तों में लगाना पड़ेगा। फिर मन को मुक्तता नहीं मिल सकती। सारांश यह कि हमें अपना व्यवहार इसीलिए बांध लेना चाहिए कि जीवन एक बोझ सा नहीं, बल्कि आनंदमय प्रतीत हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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