तेरहवां अध्याय
आत्मानात्म-विवेक
67. कर्मयोग के लिए उपकारक देहात्म-पृथक्करण
1. व्यासदेव ने अपने जीवन का सार भगवद्गीता में उड़ेल दिया है। उन्होंने विस्तारपूर्वक दूसरा भी बहुत कुछ लिखा है। महाभारत संहिता में ही लाख-सवा लाख श्लोक हैं। संस्कृत में ‘व्यास‘ शब्द का अर्थ ही ‘विस्तार‘ ऐसा हो गया है। परंतु भगवद्गीता में उनका सुझाव विस्तार करने की ओर नहीं है। भूमिति में जिस प्रकार युक्लिड ने सिद्धांत बता दिये हैं, तत्त्व दिखला दिये हैं, उसी प्रकार व्यासदेव ने जीवन के लिए उपयोगी तत्त्व गीता में लिख दिये हैं। भगवद्गीता में न तो विशेष चर्चा ही है, न विस्तार ही। इसका मुख्य कारण यह है कि जो बातें गीता में कही गयी हैं, उन्हें प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में परख सकता है, बल्कि वे इसीलिए कही गयी हैं कि लोग उन्हें परखें। जितनी बातें जीवन के लिए उपयोगी हैं, उतनी ही गीता में कही गयी हैं। उनके कहने का उद्देश्य भी इतना ही था, इसीलिए व्यासदेव ने थोड़े तत्त्व बताकर संतोष मान लिया है। उनकी इस संतोष-वृत्ति में सत्य तथा आत्मानुभव पर का उनका महान विश्वास हमें दिखायी देता है। जो बात सत्य है, उसके समर्थन के लिए विशेष युक्ति काम में लाने की जरूरत नहीं रहती। 2. हम जो गीता की बात कर रहे हैं, उसका मुख्य उद्देश्य यह है कि जीवन में जब-जब हमें किसी सहायता की आवश्यकता प्रतीत हो, तब-तब वह गीता से हमें मिलती रहे। और वह हमें सदैव मिलने जैसी भी है। गीता जीवनोपयोगी शास्त्र है और इसीलिए उसमें स्वधर्म पर इतना जोर दिया है। मनुष्य के जीवन की बड़ी नींव अगर कोई है, तो वह स्वधर्माचरण ही है। उसकी सारी इमारत इस स्वधर्माचरणरूपरी नींव पर खड़ी करनी है। यह पाया जितना मजबूत होगा, इमारत उतनी ही टिकाऊ होगी। इस स्वधर्माचरण को गीता ‘कर्म‘ कहती है। इस स्वधर्माचरणरूप कर्म के इर्द-गिर्द गीता में विविध बातें खड़ी कर दी गयी हैं। उसकी रक्षा के लिए अनेक विकर्म रचे गये हैं। स्वधर्माचरण को सजाने के लिए, उसे सुंदर बनाने के लिए, और सफल करने के लिए जिन-जिन आधारों की और सहायता की जरूरत है, वह सारी मदद इस स्वधर्माचरणरूप कर्म को देना जरूरी है। इसलिए अब तक ऐसी बहुतेरी चीजें हमने देखीं। उनमें बहुत-सी भक्ति के रूप में थीं। आज तेरहवें अध्याय में जो चीज हमें देखनी है, वह भी स्वधर्माचरण में बहुत उपयोगी है। उसका संबंध विचार-पक्ष से है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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