भागवत धर्म मीमांसा10. पूजा(27.7) योगस्य तपसश्चैव न्यासस्य गतयोऽमलाः। कोई योगी यानि कर्मयोगी है, जो उत्तम कर्म करता है। कोई उत्तम संन्यासी है, जो अच्छा न्यास करता है। यहाँ तीनों अवस्थाएँ दीखती हैं। योगी यानि गृहस्थ मान सकते हैं, तपस्वी और संन्यासी इन तीनों को बहुत अच्छी गति मिलेगी। कौन-सी गति मिलेगी? उन्हें महर्लोक, जन-लोक, तपोलोक और सत्य-लोक मिलेगा। भूः यानि पृथ्वी, भुवः यानि अन्तरिक्ष, स्वः यानि आकाश – ये तीन लोक तो हम जानते ही हैं। यहाँ और चार लोक बताये हैं : महः, जनः, तपः, सत्यम्। कह रहे हैं कि योगी, तपस्वी, संन्यासियों को महः, जनः, तपः, सत्यम् ये लोक मिलेंगे। लेकिन जो मेरे भक्त हैं, उन्हें मेरी ही गति मिलेगी – भक्तियोगस्य मद्गतिः।
(27.8) देवर्षि-भूताप्त-नृणां पितृणां हे राजन! मनुष्य के सिर पर ऋण होते हैं। जन्मतः मनुष्य ऋणी होता है। वे ऋण मनुष्य को अदा करने होते हैं। एक है देवों का ऋण, दूसरा है ऋषियों का ऋण और तीसरा है पितरों का ऋण। ये तीन प्रकार के ऋण तो सब जानते हैं। इनके अलावा यहाँ प्राणियों का ऋण – भूतों का ऋण कहा है। गाय हमें दूध देती है, इसलिए उसका भी हम पर ऋण है। कुत्ता चोरों से बचाता है, इसलिए उसका भी हम पर ऋण है। फिर आप्तों का ऋण माना है। माता-पिता, बन्धुजन, ये सारे आप्त हैं। कोई डॉक्टर हमारी सेवा करता है, तो उसका भी ऋण है। तीसरा है समाज का ऋण। नृणाम् – सारे मनुष्यों का। इतने सारे ऋण मनुष्यों के सिर पर रहते हैं। लेकिन यहाँ भगवान कह रहे हैं कि जिसने अपने को भगवान की शरण में कर लिया, उस पर कोई ऋण नहीं। वह किसी का किंकर यानि सेवक नहीं या किसी का ऋणी नहीं –न किंकरो नायम् ऋणी च। भगवान मुकुन्द की शरण में जो पहुँच गया, उस पर किसी का ऋण नहीं। शरण्यं मुकुंदं शरणं गतः यः – जो शरणागतों के प्रतिपालक मुकुन्द की शरण में सब प्रकार से पहुँच जाए। कर्तम् यानि गड्ढा। परिहृत्य कर्तम् – गड्ढे को छोड़कर। यह सारा संसार एक बहुत बड़ा गड्ढा है, जिसमें लोग गिरते हैं। उसे बचकर, छोड़कर जो सब प्रकार से भगवान की शरण पहुँच जाए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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