श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे वीर शिरोमणि, तुम अपने बाह्याभ्यन्तर सभी प्रकार के व्यवहारों का विषय मुझ सर्वव्यापक को बना दो। जैसे आकाश के समस्त अंगों में वायु मिली हुई रहती है, ठीक वैसे ही तुम मुझमें मिलकर रहो। किंबहुना तुम अपने मन को केवल मेरा ही मन्दिर बनाओ और अपने श्रवणेन्द्रियों को मेरे ही श्रवण से ठीक तरह भरो। आत्मज्ञान से निर्मल हो चुके जो सन्तजन हैं, वे ही मेरी छोटी-छोटी मूर्तियाँ हैं; अत: जैसे कामिनी अपने पति की ओर प्रेम भरी दृष्टि से देखती है, ठीक वैसे ही तुम्हारी दृष्टि भी इन सन्तों की ओर देखे। मैं समस्त वस्तुओं का निवासस्थान हूँ, अतएव मेरे शुद्ध नाम की रट तुम अपनी जिह्वा के साथ लगाकर उसे जीवित रखो। तुम इस प्रकार की व्यवस्था करो जिसमें तुम्हारे हाथों के द्वारा काम करना तथा पैरों के द्वारा चलना आदि सब कुछ मेरे ही लिये हो। हे पाण्डव, अपने अथवा पराये लोगों के साथ तुम जो उपकाररूपी यज्ञ करोगे, उसी से तुम मेरे सच्चे याज्ञिक हो सकोगे; पर एक-एक बात मैं तुमको कहाँ तक बतलाऊँ! तुम स्वयं में सेवक-भाव की स्थापना करो तथा शेष लोगों को मद्रूप मानकर उन्हें सेव्य समझो। इससे जीवमात्र की ओर से तुम्हारे मन का द्वेष मिट जायगा और तुम इसी ज्ञान-भावना से विनम्रता ग्रहण कर सकोगे कि सर्वत्र मैं-ही-मैं हूँ और इससे तुम्हें मेरा पूर्ण आश्रय प्राप्त होगा। फिर इस संसार में किसी तीसरी वस्तु का नाम ही न रह जायगा और हम-तुम सचमुच एकान्त में मिल सकेंगे। फिर चाहे कैसी ही अवस्था क्यों न उत्पन्न हो, तो भी तुम्हारा और मेरा आपकी सहवास उपभोग करने के लिये ही अवशिष्ट रह जायगा तथा हम लोगों को सुख स्वतः बढ़ने लगेगा और हे पार्थ, तीसरेपन का झगड़ा जिस अवस्था में नहीं रह जाता, तुम अन्त में उसी अवस्था में मद्रूप होकर मिल जाओगे। जिस समय जल का अवसान हो जाता है, उस समय जल में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब को अपने बिम्ब के साथ मिलकर एक होने से भला कौन रोक सकता है?
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