श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
फिर इस प्रकार का केवलस्वरूप पुरुष जिस समय अपने पुराने संस्कारों के वशीभूत होकर कुछ भी बोलता है, उस समय का उसका वही बोलना मेरी भक्ति होता है और तब अतिशीघ्र ही मैं उसका उत्तर देता हूँ और फिर मैं ही वह बोलने वाला भी होता हूँ। जिस समय बोलने वाले का सिर्फ अपने-आपसे योग होता है, उस समय उससे कुछ भी बोला ही नहीं जा सकता और यही कारण है कि उस अवस्था में मेरा उत्तम स्तवन एकमात्र मौन रहकर ही किया जाता है। अत: जिस समय वह भक्त बोलने लगता है, उस समय मानों मैं ही उसके द्वारा बोलता हूँ और इसीलिये मौन फलीभूत होता है तथा उसी मौन से वह मेरा स्तवन भी करता है। इसी प्रकार वह अपनी आँखों से जो कुछ देखता है, उसे देखने में दृश्य वस्तु तो एक ओर हट जाती है और वह देखना उसे स्वयं उसी का स्वरूप दिखलाता है। जैसे दर्पण में देखने वाले को स्वयं अपना वही स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, जो उस दर्पण में देखने से पूर्व विद्यमान होता है। ठीक वैसे ही उस भक्त का देखना भी स्वयं उसी का दर्शन कराता है। इस प्रकार जिस समय दृश्य लुप्त हो जाता है तथा द्रष्टा को द्रष्टा के रूप में उसका अनुभव होता है, उस समय द्रष्टा के अलावा अन्य कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह जाता और यही कारण है कि उसके द्रष्टत्व का भी लोप हो जाता है। जब स्वप्नावस्था में दृष्टिगत होने वाली स्त्री को गले लगाने के लिये कोई पुरुष आगे बढ़ता है, पर शीघ्र ही जाग उठता है, तब उसे मालूम पड़ता है कि न तो वह मेरी पत्नी ही थी और न मैं उसका पति हूँ और यही कारण है कि उसके भीतर का पति-पत्नी भाव नष्ट होकर वह स्वयं (आत्मा) रह जाता है अथवा दो काष्ठों को आपस में घर्षण करने से उनके मध्य में अग्नि उत्पन्न होती है और तब उन दोनों काष्ठों का अस्तित्व नहीं रह जाता। इतना ही नहीं वे दोनों काष्ठ परस्पर मिलकर एक अग्नि के ही रूप में दृष्टिगोचर होते हैं अथवा जल में पड़ रहे सूर्य के प्रतिबिम्ब को पकड़ने के लिये यदि स्वयं सूर्य ही आगे बढ़े तो उसका वह प्रतिबिम्ब वहाँ नहीं रह जाता और यही नहीं स्वयं उसके बिम्बत्व का भी लोप हो जाता है। इसी प्रकार जिस समय भक्त मेरे स्वरूप में मिलकर दृश्य को भी अपने-आप में लीन कर लेता है, उस समय उसके वास्तविक द्रष्टत्व के साथ-ही-साथ दृश्य का भी अवसान हो जाता है। जिस समय अन्धकार को सूर्य प्रकाशित करता है, उस समय जैसे प्रकाशित करने के लिये अन्धकार शेष ही नहीं रह जाता, ठीक वैसे ही जब द्रष्टा को मेरा स्वरूप एक बार प्राप्त हो जाता है, तब दृश्य में दृश्यत्व भी अवशिष्ट नहीं रह जाता। फिर ऐसी दशा में उसी स्थिति को वास्तविक दर्शन कह सकते हैं जिसमें दृश्य दिखायी भी देता है और नहीं भी दिखायी देता। |
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