श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
जैसे सम्मुख का दर्पण हटा देने पर उसमें दृष्टिगत होने वाला मुख का आभास न रह जाने पर द्रष्टा सिर्फ अपने-आपमें सुख से रहता है अथवा जैसे जागने पर स्वप्न का नामोनिशान मिट जाता है और तब उस जाग्रत् अवस्था में स्वयं का एकाकीपन देखकर कोई पुरुष बिना किसी अन्य की संगति के अपने उस एकाकीपन का उपभोग करता है, ठीक वैसे ही वह भक्त आत्मानन्द का भी उपभोग करता है। कुछ लोगों को यह कहना है कि जिस समय कोई व्यक्ति किसी वस्तु के साथ एकरूप हो जाता है, उस समय उसके लिये उस वस्तु का उपभोग हो ही नहीं सकता। इस प्रकार के लोगों से मैं यह पूछता हूँ कि शब्द के द्वारा ही शब्द का उच्चारण किस प्रकार होता है? क्या इस प्रकार के कथन करने वाले लोगों के देश में सूर्य को देखने के लिये दीपक जलाना पड़ता है, आकाश के नीचे कोई चाँड़ लगानी पड़ती है अथवा सूर्य का आलिंगन क्या कभी अन्धका कर सकता है? जब आकाश ही नहीं होगा, तो फिर आकाश का ज्ञान कहाँ से होगा? क्या कभी गंजा के आभूषण के बारे में यह गर्व किया जा सकता है कि यह आभूषण जवाहारात का है? इसी प्रकार जो ‘मैं’ हो ही नहीं सकता, उसकी दृष्टि में ‘मैं’ का अस्तित्व की कहाँ है? फिर इस विषय में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं रह जाती कि वह उसका उपभोग करेगा अथवा नहीं। इसीलिये मैं कहता हूँ कि वह क्रमयोगी (क्रमशः ब्रह्मप्राप्ति करने वाला) ‘मैं’ का उपभेाग ‘मैं’ होकर ही करता है। वह उसका उपभोग ठीक वैसे ही करता है, जैसे तरुण व्यक्ति अपने तारुण्य का उपभोग करता है। जैसे लहरें जल का चुम्बन करती हैं अथवा सूर्यबिम्ब में प्रभा सर्वत्र चमकती रहती है अथवा आकाश तत्त्व जैसे गगन में सर्वत्र भरा रहता है, ठीक वैसे ही मेरा स्वरूप देखकर वह क्रमयोगी भी बिना किसी प्रकार की क्रिया किये मेरा उपभोग करता रहता है। आभूषण जैसे स्वभावतः स्वर्ण का उपभोग करता है अथवा सुगन्ध जैसे चन्दन में बिना कुछ भी किये बनी रहती है, चाँदनी जैसे बिना कोई क्रिया किये चन्द्रबिम्ब में विलास करती है, ठीक वैसे ही अद्वैत में यद्यपि किसी क्रिया को करने की गुंजाइश नहीं होती, पर फिर भी भक्ति के लिये उसमें गुंजाइश रहती है। किन्तु यह बात अनुभव करने से ही समझ में आती है, सिर्फ शब्दों के द्वारा इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। |
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