श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे धनंजय! एकजात सम-अवस्था के कारण उस व्यक्ति के लिये कोई ऐसी चीज रह ही नहीं जाती, जिसके कारण वह यह कह सकता हो कि अमुक व्यक्ति मेरा दुश्मन है अथवा अमुक व्यक्ति मेरा सुहृद् है। सिर्फ यही नहीं यदि किसी कारण से उसके मुँह से ‘मेरा’ शब्द निकल भी जाय तो भी उसके सम्मुख द्वैत का भाव रह ही नहीं जाता; कारण कि वह एकमात्र अपनी सत्ता से एक-स्वरूप हो चुका होता है। हे पाण्डुसुत! इस प्रकार वह सिर्फ एकभाव से समस्त जगत् को भर देता है और इसीलिये संकुचित वृत्ति की ममता कभी उसे स्पर्श भी नहीं करती और वह उसका पूर्णतया त्याग कर देता है। जिस समय इस प्रकार यह योद्धा अपने सारे वैरियों का उन्मूलन कर डालता है तथा सम्पूर्ण मायिक प्रसार का भी अवसान कर देता है, उस समय उसका योगरूपी अश्व स्वतः स्थिर हो जाता है। अपने शरीर पर धारण किये हुए वैराग्यरूपी कवच को भी वह कुछ शिथिल कर देता है। वह अपना ध्यानरूपी शस्त्र भी रख देता है। उस समय उसके सम्मुख आत्मा के सिवा और कुछ भी नहीं रह जाता और इसीलिये वह वृत्ति भी रुक जाती है। रसायन औषध अपना समस्त काम तो ठीक तरह से करती है; किन्तु व्याधिग्रस्त व्यक्ति उसका सेवन करता है, इसलिये वह स्वयं भी समाप्त हो जाती है। इस सम्बन्ध में भी ठीक वही बात लागू होती है। जैसे रुकने का स्थान देखकर तीव्रगति से आगे बढ़ने वाले पैर भी एकदम से रुक जाते हैं, ठीक वैसे ही ब्रह्म का सान्निघ्य हो जाने के कारण उसके अभ्यास का वेग भी कम हो जाता है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |