श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
इसी प्रकार बड़े-बड़े तपस्वी भी जिससे भय खाते हैं, जिससे क्रोध-सरीखा महादोष उत्पन्न होता है और जिसका यह स्वभाव है कि ज्यों-ज्यों उसकी पूर्ति की जाय, त्यों-त्यों वह रिक्त होता जाता है और जितना ही उसका पोषण किया जाय, उतना ही वह उग्ररूप धारण करता जाता है, उस ‘काम’ नामक वैरी का भी वह योद्धा नाश कर डालता है; कारण कि उसका नाश करते ही ‘क्रोध’ नामक वैरी का नाश स्वतः हो जाता है। काम का नाश कर डालेने से क्रोध का भी स्वतः नाश ठीक उसी प्रकार हो जाता है, जिस प्रकार जड़ काटने मात्र से ही शाखाओं का अपने-आप नाश हो जाता है। इसीलिये जहाँ कामरूपी वैरी का नाश कर दिया जाता है। वहाँ क्रोधरूपी वैरी का नृत्य भी अपने-आप नाश हो जाता है। जैसे कोई सामर्थ्यवान् पुरुष अपना बोझ दूसरे के ऊपर जबर्दस्ती लादने से नहीं चूकता, वैसे ही जिस परिग्रह का स्वीकार करने से उसका अत्याचार निरन्तर बढ़ता ही जाता है, जो सिर पर सवार हो जाता है, मनुष्य में नाना प्रकार के दुर्गुण उत्पन्न करता है तथा जीव को ममतारूपी लाठी पकड़कर चलने के लिये मजबूर करता है, जिसे परिग्रह के शिष्यों तथा शास्त्रों इत्यादि का आडम्बर रचकर और मठ-मुद्रा इत्यादि के ढोंग खड़े करके संन्यासियों तक को अपने फन्दे में फँसा लिया है, जो घर में कुटुम्बरूप में साथ लग जाता है और वन में जो वन्यरूप में निरन्तर सम्मुख खड़ा रहता है, जो नंगे शरीरों का भी पीछा नहीं छोड़ता, उस परिग्रह नामक अजेय वैरी का जो आश्रय स्थान है उसको भी वह योद्धा नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है और संसार पर विजय पाने का सुख भोगता है। यही कारण है कि ज्ञान-गुण के अमानित्व इत्यादि जो समूह हैं, वे मानो कैवल्य देश के राजाओं के रूप में आकर उसके सम्मुख उपस्थित होते हैं और तब शुद्ध सत्यज्ञान का स्वामित्व उसे सौंप करके वे स्वयं उसके परिवार में एक सदस्य बनकर रहते हैं। फिर जिस समय प्रवृत्तिरूपी राजमार्ग से उस योद्धा की सवारी निकलती है, उस समय जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों अवस्थारूपी प्रमदाएँ कदम-कदम पर उसके ऊपर से सुखरूपी राई-नोन उतारती चलती हैं। उसके आगे-आगे ब्रह्मबोधरूपी अंगरक्षक (विवेक) समस्त मायिक प्रसाररूपी भीड़-भाड़ दूर हटाता हुआ चलता है तथा योगावस्था आरती लेकर उसकी आरती उतारने के लिये आती है। उस समय पर ऋद्धि-सिद्धियों के भी समुदाय आ जाते हैं और उनके द्वारा की गयी पुष्पों की वर्षा से मानो उस योद्धा का स्नान होता है। इस प्रकार ब्रह्मैक्यरूपी स्वराज्य एकदम सन्निकट आ जाने के कारण उसे त्रिभुवन आनन्द से परिपूर्ण दिखायी देते हैं। |
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