श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-17
श्रद्धात्रय विभाग योग
हे धनुर्धर! जिस तप से एकमात्र मूर्खता का सहारा लेकर अपने शरीर के साथ शत्रुवत् व्यहार किया जाता है, शरीर को पंचाग्नि का ताप पहुँचाया जाता है अथवा अन्दर से इस प्रकार की अग्नि जलायी जाती है जिसमें शरीर ईंधन की भाँति जले, जिसमें सिर पर गुग्गुल जलाते हैं, पीठ पर काँटे बाँधते हैं; चारों ओर जलने वाली अग्नि में शरीर अंगारों से जलाया जाता है अथवा श्वासोच्छ्वास बन्द करके व्यर्थ ही उपवास किया जाता है, तथा अपने पैर को ऊपर टाँगकर तथा मुँह को धूनी पर लटकाकर धुएँ का सेवन किया जाता है, हिम-शीतल जल में कण्ठपर्यन्त खड़े होकर अथवा किनारे के शिला पर बैठकर तपस्या की जाती है अथवा जीते-जी अपने शरीर के मांस के टुकड़े काटे जाते हैं और हे धनंजय! जब इस तरह अपने शरीर को नाना प्रकार की यन्त्रणाएँ दी जाती हैं, तब जो तप होता है और जिसका हेतु एकमात्र दूसरों का नाश करना होता है, उस तप का आचरण करके जो अपने शरीर को पीड़ित करता है, उसकी दशा उसी पत्थर की भाँति होती है, जो स्वयं अपने ही गुरुतर भार के कारण नीचे की ओर निरन्तर लुढ़कता जाता है और इस प्रकार स्वयं के साथ-साथ उसके मार्ग में पड़ने वाली समस्त चीजों को चूर-चूर कर डालता है। इस प्रकार का व्यक्ति सुखपूर्वक रहने वाले अपने जीव को पीड़ित कर विजयोपलब्धि की दुर्वासना से तप का आचरण करता है। तात्पर्य यह कि इस प्रकार देह-सम्बन्धी यातना के भयंकर कृत्यों से जो तप निष्पन्न होता है, वही तामस तप कहलाता है। इस प्रकार सत्त्व इत्यादि गुणों के योग से जो त्रिविध तप होते हैं, वे मैंने तुम्हें साफ-साफ बतला दिये हैं। अब प्रसंगानुसार दान के भी त्रिविध लक्षण तुम्हें बतला देता हूँ। इस प्रकरण में त्रिगुणों के योग से दान के भी तीन प्रकार होते हैं। उनमें से प्रथम सात्त्विक दान के लक्षण ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (254-265)
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