श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
अर्जुन की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण को यह भान हो गया कि अब इसे इस विषय का चस्का पड़ गया है और ज्ञान-सुख से इसका अन्तःकरण डोलने लग गया है। अतः श्रीकृष्ण ने कहा-“शाबाश! पार्थ, तुमने यह बहुत अच्छी बात कही और नहीं तो यदि यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो इस विषय के निरूपण का यह कोई उचित प्रसंग नहीं था; परन्तु मेरे हृदय में तुम्हारे लिये जो आदर-भाव रहता है, वही मुझे कुछ कहने में प्रवृत्त करता है।” यह सुनकर अर्जुन ने कहा-“हे देव! आप यह कैसी बातें कहते हैं? यदि चक्रवाक पक्षी न हो तो क्या चन्द्रिका नहीं छिटकती? जगत् को शीतल करना क्या चन्द्रिका का सहज स्वभाव नहीं है? जैसे चक्रवाक पक्षी अपने अनुराग के कारण चोंच खोलकर चन्द्रमा की तरफ देखता है, वैसे ही हे देव! हे कृपासिन्धु!! मैं भी आपसे थोड़ी-सी प्रार्थना करता हूँ; परन्तु महाराज! आप तो कृपा के प्रत्यक्ष सागर ही हैं। मेघ अपनी सामर्थ्य से ही संसार की पीड़ा हरता है और नहीं तो यदि मेघ से होने वाली वर्षा का विचार किया जाय तो उसके समक्ष चातक की प्यास कितनी अल्प ठहरती है! परन्तु जैसे अंजलिभर जल के लिये भी गंगा तट पर जाने की आवश्यकता होती है, वैसे ही मेरी इच्छा चाहे थोड़ी हो और चाहे बहुत, पर हे देव! आपको सब बातें विस्तारपूर्वक ही बतानी चाहिये।” यह सुनकर देव ने कहा-“अच्छा, अब इन बातों को जाने दो। मुझे जो तुष्टि मिली है, उसके कारण अब तुम्हारे मुख से निःसरित स्तुति सहन करने के लिये अवकाश ही नहीं रह गया। तुम मेरी बातें सच्चे मन से सुन रहे हो और यही बात मेरे वक्तृत्व के लिये उत्साह बढ़ाने वाली हो रही है।” इस प्रकार की बातें कहकर श्रीहरि ने अपनी वक्तृता को आगे बढ़ाया।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (197-238)
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