श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
जो भक्त मेरा इस प्रकार का भजन करते हैं, वे यह अच्छी तरह से जान लेते हैं कि जैसे वस्त्र में एक छोर से दूसरे छोर तक सिर्फ सूत-ही-सूत रहता है, वैसे ही मैं भी समस्त चराचर में ओत-प्रोत भरा रहता हूँ। ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जिसमें मेरा निवास न हो। उन्हें इस बात का सम्यक् ज्ञान हो जाता है कि इस संसाररूपी वस्त्र का एक छोर ब्रह्मदेव और दूसरा मच्छर है और इन दोनों के अन्तराल में जो कुछ है, वह सब मेरा ही स्वरूप है। फिर छोटे-बड़े और सजीव-निर्जीव का कोई भेद नहीं करते। उस समय जो भी चीज उनके दृष्टिपथ में पड़ती है, उसे वे मेरा ही स्वरूप समझकर उसको दण्डवत् करते हैं। उन्हें अपनी श्रेष्ठता का ध्यान ही नहीं रह जाता और न दूसरों की योग्यता तथा अयोग्यता की ही कोई भावना रह जाती है। उन्हें एक सिरे से जीवमात्र का विनम्रतापूर्वक सम्मान करना ही रुचिकर लगता है; जैसे ऊँची जगह पर गिरा हुआ जल स्वतः एकत्रित होकर फिर नीचे की ओर ही बहता हुआ आ जाता है, वैसे ही उन भक्तों का यह स्वभाव ही हो जाता है कि वे जीवमात्र को देखते ही विनम्र हो जाते हैं अथवा जैसे फलदार वृक्ष की शाखाएँ स्वतः झुककर जमीन की ओर आ जाती हैं, वैसे ही वे जीवमात्र के समक्ष स्वभावतः नम्र हो जाते हैं। वे सदा गर्वशून्य रहते हैं। वे विनम्रता को ही अपना सम्पूर्ण ऐश्वर्य समझते हैं और उसे वे जय-जय मन्त्रपूर्वक मुझे समर्पित कर देते हैं। इस प्रकार निरन्तर जीवमात्र के समक्ष विनम्र होते रहने के कारण उनकी मान-अपमान की भावना एकदम नष्ट हो जाती है और इसीलिये वे स्वतः मद्रूप होकर और सदा समरस रहकर उपासना करते रहते हैं। हे अर्जुन! इस प्रकार मैंने तुम्हें सच्ची और महत्त्वपूर्ण भक्ति की सब बातें बतला दी हैं, अब जरा तुम उन लोगों की भी बातें सुन लो जो ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी उपासना करते हैं। हे किरीटी! भजन करने का कौशल तो तुम जानते ही हो, क्योंकि इस विषय का विवेचन मैं पहले ही कर चुका हूँ।” श्रीकृष्ण की ये सब बातें सुनकर अर्जुन ने कहा-“हाँ महाराज! यह देव की कृपा ही है इस सौभाग्य का प्रसाद मुझे एक बार प्राप्त हो चुका है। तो भी यदि अमृत बार-बार परोसा जाय तो क्या कभी कोई यह कह सकता है कि बस, अब और नहीं चाहिये।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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