श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
जिसे लोग योगी कहते हैं, उसे देवों का भी देव जानना चाहिये। वह न केवल मेरा सुख सर्वस्व अपितु जीवन ही होता है अर्थात् वो मेरा चैतन्य स्वरूप आत्मा ही है। भक्ति, भजन और भजनीय जो भक्ति-साधन की त्रिपुटी हैं, उनके सम्बन्ध में व्यक्ति का अखण्ड अनुभव यही होता है कि वह तीनों मैं ही हूँ। उस व्यक्ति में और मुझ में आपस की जो प्रीति होती है, हे सुभद्रापति! वह वर्णनातीत है। उसमें जो तन्मयता होती है, यदि उसके लिये किसी ऐसी उपमा की जरूरत हो जो प्रेम की दृष्टि से उचित जान पड़े, तो उसकी यही उपमा हो सकती है कि मैं देह हूँ और वह आत्मा है।” इस प्रकार भक्त-चकोर चन्द्र, सद्गुण-सिन्धु और त्रिलोकी के एकमात्र नरेन्द्र श्रीकृष्ण ने पृथापुत्र अर्जुन से जो कुछ कहा था, वह सब संजय ने धृतराष्ट्र को एक-एक करके बतला दिया। उस समय तक श्रीकृष्ण यह बात समझ चुके थे कि शुरु से ही अर्जुन में उपदेश सुनने की जो उत्कण्ठा थी, वह अब द्विगुणित हो गयी है। इसलिये श्रीकृष्ण के चित्त में बहुत ही संतोष हुआ। श्रीकृष्ण को यह जानकर अत्यन्त आनन्द हुआ कि जैसे दर्पण में प्रतिच्छाया दृष्टिगोचर होती है‚ वैसे ही अर्जुन की मुद्रा पर मेरे उपदेश की भी प्रतिछाया दीख रही है और उसी आनन्द के कारण वे अब यह विषय और भी विस्तार से अर्जुन को बतलावेंगे। अगला अध्याय उसी प्रसंग से सम्बन्धित होगा। वह प्रसंग शान्त रस से इतना सराबोर होगा कि उसमें महासिद्धान्तरूपी बीजों में अंकुर निकलते हुए दृष्टिगोचर होंगे। इसका प्रमुख कारण यह है कि सात्त्विक भावनाओं की वृष्टि से आत्मभावनारूपी ढेले फूट गये हैं और श्रोताओं के चतुर चित्तरूपी क्यारियाँ बीज धारण करने के लिये तैयार हो गयी हैं। तिस पर चित्त की एकतानता को स्वर्ण के सदृश प्राप्त होने के कारण श्रीनिवृत्तिनाथ के चित्त में भी सिद्धान्तरूपी बीज-वपन का उत्साह उमड़ पड़ा है। इसीलिये यह निवृत्तिनाथ का दास ज्ञानदेव कहता है कि श्रोतागण, इस बीज बोने के काम में मुझे श्रीसद्गुरु ने बीज रखने वाला चोंगा बनाया है तथा मेरे सिर पर हाथ रखकर मेरे अन्तःकरण में बोये जाने वाले बीज डाले हैं। इसीलिये मेरे मुख से जो-जो बातें निकलती हैं, वह सन्तों के अन्तःकरण में तुरन्त ही अच्छी तरह बैठ जाती है। परन्तु बहुत कुछ विषयान्तर हो चुका। अब मैं यह बतलाऊँगा कि श्रीकृष्ण ने इसके बाद अर्जुन से और क्या कहा। परन्तु श्रोताजनों को वे सारी बातें मन के कानों से सुननी चाहिये, बुद्धि की आँखों से देखनी चाहिये और अपना चित्त मुझे सौंपकर मेरी बातें ग्रहण करनी चाहिये। फिर सतर्कता के हाथों से इन सब बातों को उठाकर अपने अन्तःकरण के भीतरी भाग में रखनी चाहिये, तब कहीं जाकर सज्जनों की वासना पूरी होगी। ये बातें आत्मकल्याण को प्राप्त कराती हैं, परिणाम में चैतन्यता लाती हैं और जीवों पर सुखरूपी फूलों की लखौरी माला चढ़ाती है। अब अर्जुन के साथ श्रीमुकुन्द का जो उत्तम संवाद हुआ था, वह मैं श्रोताओं को बतलाया हूँ।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (482-497)
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