गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द10.बुद्धियोग
भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि सांख्यों में मोक्षदायिनी बुद्धि की जो संतुलित अवस्था है वह, मैंने तुझे बता दी, और अब योग में जो दूसरी संतुलित अवस्था है उसका वर्णन करूंगा। तू अपने कर्मों के फलों से डर रहा है, तू कोई दूसरा ही फल चाहता है और अपने जीवन के सच्चे कर्म-पथ से हट रहा है; क्योंकि यह पथ तुझे तेरे वांछित फलों की ओर नहीं ले जाता। परंतु कर्म और कर्मफल को इस दृष्टि से देखना, फल की इच्छा से कर्म में प्रवृत्त होना, कर्म को अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाना बंधन है जो उन अज्ञानियों को बांधता है जो यह नहीं जानते कि कर्म क्या चीज है, कहाँ से इसका प्रवाह चला है, यह कैसे होता है और इसका श्रेष्ठ उपयोग क्या है। मेरा योग तुझे इन कर्म-बंधनों से मुक्त कर देगा। तुझे बहुत-सी चीजों का डर लग रहा है- पाप का डर, दुख का डर, नरक और दंड पाने का डर, ईश्वर का डर और इस जगत् का डर, परलोक का डर और अपना डर। भला बता तो, इस समय ऐसी कौन-सी चीज है जिसका, हे आर्य वीर, जगत्त के वीरशिरोमणि, तुझे डर न लगता हो? परंतु यह महाभय ही तो मानव जाति को घेरे रहता है- लोक और परलोक में पाप और दु:ख का भय, जिस संसार के सम्य स्वभाव को वह नहीं जानती उस संसार में भय, उस ईश्वर का भय जिसकी सत्य सत्ता को उसने नहीं देखा है और न जिसकी विश्वलीला के अभिप्राय को ही समझा है। मेरा योग तुझे इस महाभय से तार देगा और इस योग का स्वल्प- सा साधन भी तुझे मुक्ति दिला देगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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