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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
क्योंकि, ये चीजें कोई आकस्मिक घटना नहीं होतीं, बल्कि एक ऐसा अपरिहार्य बीज होती है जो बोया जा चुका है तथा एक ऐसी फसल है जिसे काटना ही होगा। जिन्होंने आंधी के बीज बोये हैं उन्हें बवंडर की फसल काटनी ही होगी। असल में उसकी अपनी प्रकृति भी युद्ध का कोई वास्तविक परित्याग नहीं करने देगी, प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति। अंत में भगवान् गुरु अर्जुन से कहते हैं कि ‘‘अपने अहंकार का आश्रय लेकर तू जो यूं सोचता है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या हैः प्रकृति मुझे तेरे कार्य में नियुक्त करेगी। जो कार्य तू मोहवश नहीं करना चाहता वही तू अपने स्वभावजनित कर्म से बंधा हुआ, विवश होकर करेगा।’’[1] तो फिर क्या उसे युद्ध को कोई और ही मोड़ देना होगा, स्थूल शस्त्रास्त्रों की जगह किसी प्रकार के आत्म-बल, आध्यात्मिक पद्धति एवं शक्ति का प्रयोग करना होगा? पर वह तो उसी कार्य का केवल एक अन्य रूप है, संहार तो तब भी होगा, और उसे दिया गया मोड़ भी यह नहीं होगा जिसे व्यक्तिगत अहंभाव चाहता है, बल्कि वह होगा जिसे विश्व -पुरुष चाहते हैं। यहाँ तक कि, संसार की शक्ति इस नयी शक्ति के सहारे पुष्ट हो सकती है, अधिक भीषण वेग प्राप्त कर सकती है तथा काली प्रादुर्भूत होकर अपने अट्टहास्य के घोरतर निनाद से जगत को भर दे सकती है। जब तक मुनष्य का हृदय शांति का अधिकारी नहीं बनता तब तक सच्ची शांति नहीं स्थापित हो सकती; जब तक रुद्र का ऋण नहीं चुकाया जाता, विष्णु का विधाता प्रभुत्व नहीं प्राप्त कर सकता।
तब क्या उसे युद्ध से किनारा करकर अबतक अविकसित मानवजाति को प्रेम तथा एकता के नियम का उपदेश देना होगा? इस संसार में प्रेम और एकतव के नियम के शिक्षकों का तो होना आवश्यक है, क्योंकि अंतिम उद्धार इस ढंग से ही होगा। परंतु जब तक मनुष्य के अंदर अवस्थित काल-पुरुष तैयार नहीं हो जाता तब तक आंतरिक एवं चरम सत्य बाह्म एवं तात्कालिक सत्य पर प्रभुत्व नहीं प्राप्त कर सकता। ईसा और बुद्ध आये और चले गये, परंतु अबतक भी संसार रुद्र की ही हथेली में हैं इस बीच अहंभावपूर्ण शक्ति से अत्यधिक लाभ उठाने वाली शक्तियों तथा उनके दासों के द्वारा व्यथित तथा उत्पीड़ित मानवजाति का आगे बढ़ने के लिये उग्र प्रयास संघर्ष के बीरनायक की तलवार तथा इसके पैगम्बर की वाणी के लिये अलख जगा रहा है।
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