गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
क्योंकि, काल-पुरुष जगदीश्वर संहार के लिये संहार नहीं करते, बल्कि विकास की चक्रात्मक प्रक्रिया में एक उतकृष्टतर राज्य तथा वृद्धिशील अभिव्यक्ति, के हित रास्ता साफ करने के लिये ही करते हैं। उसे संघर्ष की महानता तथा विजय के गौरव को यदि आवश्यक हो तो पराजय का छद्रारूप धारण करके आने वाली विजय के गौरव को-उस गभीरतर अर्थ में ग्रहण करना होगा जिसे स्थूल मन नहीं देख पाता, और फिर, अपने समद्ध राज्य का उपभोग करते हुए, मनुष्य मात्र का भी नेतृत्व करना होगा। संहारकर्ता की आकृति से भयभीत न होकर उसे उसके अंदर उस सनातन आत्मा को देखना होगा जो इन सब नाशवान् शरीरों में अविनाशी है, और साथ ही उस आकृति के पीछे मनुष्य के सारथि एवं नेता, के मुखमंडल को देखना होगा। इस विकराल विश्व-रूप को जब वह एक बार देख लेता तथा अंगीकार कर लेता तो शेष सारा अध्याय इसी अश्वासनदायी सत्य के निरूपण की ओर मोड़ दिया जाता है; अंत में यह सनातन की एक सुपरिचित मुख छवि तथा विग्रह को प्रकाशित करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.33
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