गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
इसमें संदेह नहीं की गीता में भक्ति पर बड़ा जोर दिया गया है, बारंबार इस बात को दुहराया गया है कि भगवान् ही ईश्वर और पुरुष हैं, और फिर गीता ने पुरुषोत्तम सिद्धांत स्थापित कर यह स्पष्ट कर दिया है कि भगवान् पुरुषोत्तम हैं, उत्तम पुरुष हैं, अर्थात् क्षर पुरुष के परे और अक्षर पुरुष से भी श्रेष्ठ हैं और वहीं हैं जिन्हें जगत् के संबंध से हम ईश्वर कहते हैं, गीता की से बातें बड़ी मार्के की हैं, मानो उसकी जान हैं। तथापि ये ईश्वर वह आत्मा हैं, जिनमें संपूर्ण ज्ञान की परिपूर्ति होती है, ये ही यज्ञ के प्रभु हैं, सब कर्म हमें इन्हीं के पास ले जाते हैं और ये ही प्रेममय स्वामी हैं जिसमें भक्त हृदय प्रवेश करता है। गीता इन तीनों में संतुलन रखती है। कहीं ज्ञान पर जोर देती है, कहीं कर्म पर कहीं और कहीं भक्ति पर, परंतु यह जोर तात्कालिक विचार-प्रसंग से संबंध रखता है, इस मतलब से नहीं कि इनमें से कोई किसी से सर्वथा श्रेष्ठ या कनिष्ठ है। जिन भगवान् में ये तीनों मिलकर एक हो जाते हैं वे ही परम पुरुष हैं, पुरुषोत्तम हैं। परंतु आज तक, अर्थात् जब से आधुनिकों ने गीता को मानना और उस पर कुछ विचार करना आरंभ किया है, तब से लोगों का झुकाव गीता के ज्ञानत्व और भक्ति तत्त्व को गौण मानकर, उसके कर्म-विषयक लगातार आग्रह का लाभ उठाकर उसे एक कर्मयोग-शास्त्र, कर्म-मार्ग में ले जाने वाला प्रकाश, कर्म विषयक सिद्धांत ही मानने की ओर दिखायी देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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