श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
जिस व्यक्ति के मन में विषयों के प्रति पूर्ण विरक्ति बनी रहती है, वही ज्ञानी होता है। जैसे वमन किये हुए अन्न को देखकर किसी की जिह्वा से लार नहीं टपकती अथवा जैसे किसी मृतक को गले लगाने के लिये कोई उद्यत नहीं होता; विष को जैसे कोई नहीं खाता अथवा जलते हुए घर में कोई प्रवेश नहीं करता, व्याघ्र की गुफा में कोई अपना डेरा नहीं डालता, अथवा गले हुए लोहे के खौलते हुए रस में कोई नहीं कूदता, तथा अजगर को तकिया बनाकर कोई उस पर नहीं सोता, वैसे ही विषय की चर्चाएँ जिसे रुचिकर नहीं लगतीं और जो किसी विषय का ग्रहण इन्द्रियों के द्वारा नहीं करता, जिसका मन विषयों की ओर से सदा उदासीन रहता है, जिसका देह अत्यन्त कृश रहता है और शम-दम के प्रति जिसका मन उत्साह से भरा रहता है, हे पाण्डव! जिसके समस्त तपोव्रत एक जगह इकट्ठे रहते हैं और आबादी में निवास करना जिसे युगान्त की भाँति दुःखद जान पड़ता है, जिसे योगाभ्यास की अधिक ललक रहती है, जो सुनसान स्थान की ओर दौड़ता हुआ जाता है और जिसे मानव-समाज का नाम भी रुचिकर नहीं लगता, तो ऐहिक विषय-भोगों को उतना ही त्याज्य समझता है, जितना बाणों की शय्या पर सोना अथवा पीब की कीचड़ में लोटना, जो स्वर्ग-सुखों का वर्णन सुनकर उन सुखों को कुत्तों के सड़े हुए मांस के सदृश समझता है, उसका यह वैराग्य ही उसके लिये आत्म लाभ का वैभव होता है। जीव में ब्रह्मानन्द का सुख भोगने की पात्रता इसी प्रकार के वैराग्य के द्वारा आती है। जिसमें ऐहिक और पारलौकिक - दोनों प्रकार के सुखों के उपभोग के सम्बन्ध में पूर्ण विरक्ति दिखलायी पड़े, उसके बारे में तुम यह जान लो कि उसी में विपुल ज्ञान कुण्डली मारकर बैठा रहता है। जो किसी सकाम मनुष्य की तरह ही इष्टापूर्त के सभी लोकोपयोगी काम करता है, पर उनका कर्तृत्वाभिमान अपने शरीर को स्पर्श भी होने नहीं देता, जो वर्णाश्रम-धर्म के पालन के लिये आवश्यक नित्य और नैमित्तिक कर्म किये बिना नहीं रहता, पर फिर भी जिसमें ऐसी भावना रत्तीभर भी नहीं रहती कि मैंने अमुक कार्य सिद्ध किया है, वही सच्चा ज्ञानी है। |
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