श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
प्रस्तावना
प्रेम एक सम्बन्ध- विशेष का नाम है, या यों कहिये कि वह एक सम्बन्धात्मक तत्त्व है। सम्बन्धात्मक तत्त्व को हम शुद्ध अद्वय तत्त्व नहीं कह सकते, क्योंकि सम्बन्ध सदैव दो या दो से अधिक के बीच रहता है। यह बात अन्य सम्बन्धों के बारे में सत्य हो सकती है किन्तु प्रेम-सम्बन्ध दो के बीच रहकर दो को सर्वथा एक किये रहता है। इस सम्बन्ध के द्वारा निष्पन्न एकता नितान्त सहज एवं सत्य होती है। प्रेम में जितने सत्य “दो” है, उतना ही सत्य “एक” है, अतः नित्य सम्बन्धात्मक रहते हुए भी प्रेम नित्य अद्वय तत्त्व है। विचार करने पर मालूम होता है कि वैष्णव किंवा भागवत तत्त्व ही सम्बन्धात्मक तत्त्व है,चाहे उसमें शक्ति -शक्तिमान का सम्बन्ध हो चाहे गुण और गुणी का और चाहे विशेषण और विशेष्य का उसमें सम्बन्ध की सत्ता अवश्य है और सम्बन्ध के रहते हुये भी वह अद्वय तत्त्व है। प्रेम भी भागवत तत्त्व है। इसके सम्बन्धात्मक सम्पूर्ण स्वरूप का परिचय श्वेताश्वतर उपनिषद् की इस प्रसिद्ध श्रुति से प्राप्त होता है कि इस 'ब्रह्म को भोक्ता, भोग्य और प्रेरिता के त्रिविध रूप में मान कर सम्पूर्ण बतलाया गया है। 'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्व प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्म एतत्'[1] इसका अर्थ यह हुआ कि अद्वय ब्रह्म-तत्त्व भोक्ता, भोग्य और प्रेरिता के रूप में त्रिविध समझना चाहिये। प्रेम में प्रेमी “भोक्ता” है, प्रेम-पात्र ‘भोग्य’ है और इन दोनों की परस्पर की रति का स्वरूप 'प्रेरिता' प्रेम है जो इन दोनों के भीतर-बाहर स्थित रह कर इनका पोषक नियामक एवं प्रेरक होता है। प्रेम एकत्व-विधायक दो को एक बनाने वाले स्वभाव के कारण भोक्ता और भोग्य एक दूसरे में डूब जाने के लिये सदैव उन्मुख रहते हैं, किन्तु प्रेरक प्रेम उन दोनों को अपने भिन्न स्वरूपों में स्थित रखकर प्रेम की लीला को अक्षुण्ण बनाये रखता है। रति एवं उसके भोक्ता भोग्य स्वरूप उभय कारणों के योग से प्रेम का नित्य लीलामय सम्पूर्ण स्वरूप निष्पन्न होता है विलक्षणता यह है कि प्रेम में रति अपने कारणों से आसत्त है। अतः ईश्वर के समान नहीं, सहचरी किंवा दासी के समान वह उनकी प्रेरक होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्वेता. 1-12
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