हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 178

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
परिचर्या


परिचर्या का लक्षण गोस्वामी वृन्दावनदास जी ने बतलाया है ‘दास जिस प्रकार की सेवा नृपति की करता है, उस प्रकार की सेवा का नाम परिचर्या है। नवधा भक्ति में परिचर्या को पाद-सेवन कहते हैं।'

परिचर्या तु सा ज्ञेंया सेवा या दास वन्नृपे।
पाद सेवन मित्यस्याः पर्यायः श्रवणादिषु।[1]

सम्पूर्ण अधीनता प्रेम का एक अत्यन्त मौलिक अंग है, यह हम देख चुके हैं। यह अधीनता नितान्त स्वभाविक होती है, अतः इसका पूरा उदाहरण नहीं मिल सकता। क्रीतदासों की अपने स्वामी के प्रति एकान्त अधीनता से इसको कुछ समझा जा सकता है। किन्तु इन दोनों में एक बड़ा भारी अंतर यह है कि प्रेम में मनुष्य को बिना मोल बिक जाना पड़ता है। क्रीत दास अवसर मिलने पर मुक्ति का स्वप्न देखता है। प्रेमी के लिये मुक्ति अकल्पनीय ही नहीं, सबसे बड़ा अभिशाप है। उपासक के हृदय में प्रेम की इस सहज अधीनता को उदय करना ही ‘परिचर्या’ का प्रधान लक्ष्य है। परिचर्या दो भावों से की जाती हैं, दास-भाव से और दासी-भाव से। अधीनता समान होते हुए भी, रसिकों ने, रस के अधिकार की दृष्टि सी, इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर माना है। उज्ज्वल रस की परिचर्या में केवल दासी-भाव का ही अधिकार है। दास भाव ही नहीं, सख्य एवं बत्सल भावों का भी वहाँ प्रवेश नहीं होता। उज्ज्वल रस की उपासना की दृष्टि से दासी-भाव, सख्य-भाव, वत्सल-भाव एवं दासी-भाव किंवा सखी-भाव के तारतम्य को स्पष्ट करते हुए गोस्वामी ब्रजलाल जी कहते हैं ‘दास अपने स्वामी श्रीकृष्ण की सेवा राजसभा में कर सकता है, अन्तपुर में उसका कोई अधिकार नहीं होता है। सखागण श्रीकृष्ण के साथ समानता के भाव से हास-परिहास करते हैं किन्तु रहस्य में उनका भी प्रवेश नहीं है। वत्सल भाव में स्नेह तो खूब होता है किन्तु दोनों के बीच में स्वामि-सेवक भाव नहीं होता। अतः श्री राधा की दासी किंवा सखी भाव के बिना उपासक का प्रवेश रास लीला में नहीं होता।

दासः स्वास्वामि सेवा सदसि च कुरुतान्नान्तर स्याधिकारः,
सख्ये कृष्णेन हासादिक मथ कुरुतान्नो रहस्ये प्रवेशः।
वात्सल्ये स्वामि भावः कथमिहमनयोः संभवेद्राधिकाकाया,
दास्यात्सख्याद्विना किंभवति चभजताँ रास लीला प्रवेशः।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अ. वि.
  2. से. वि. 61

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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