श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
श्री ध्रुवदास काल
इस काल में राधावल्लभीय साहित्य को बहुत श्री वृद्धि हुई। कुछ असाधारण बुद्धि संपन्न महात्मानों ने, इस काल में, प्रेम विहार के कथन की नई और प्रभावशाली विधाओं को जन्म दिया और परंपरा बँधे हुए साहित्य को अभिव्यक्ति की अपेक्षित वैचित्रो प्रदान की। इस काल के सबसे बड़े कवि श्री ध्रुवदास हैं। इनका चरित्र रसिक अनन्य माल में दिया हुआ है। यह जाति के कायस्थ और देव वन के रहने वाले थे। इनके बाबा बीठल दास जी श्री हिताचार्य के शिष्य थे। बीठल दास जी का चरित्र भी रसिक अनन्य माल में मिलता है। ध्रुवदास जी और उनके पिता श्यामदास जी श्री गोपीनाथ जी के शिष्य थे। इसीलिये भगवत मुदित जी ने ध्रुवदास जी को ‘परंपराय अनन्य उपासी’ लिखा है। ‘देव बन में थोड़े दिन रहने के बाद ध्रुवदास जी वृन्दावन चले गये। वहाँ वे यमुना तट की सघन कुंजों में युगल केलि का चिंतन करते हुए घूमने लगे। जो कुछ उनके मन में प्रति’ भासित होता था, उसका वाणी के द्वारा गान करने की उनकी तीव्र इच्छा थी किन्तु उनसे वह बनता न था- ‘उर आवै मुख तैं नहिं कढ़ै।’ क्रमश: रूप गुण गान की यह इच्छा इतनी प्रबल बन गई कि उसको पूर्ण करने के लिये वे अन्न जल त्याग कर हितप्रभु द्वारा स्थापित रास मंडल पर पड़ गये। इस स्थिति में दो दिन व्यतीत हो गये। तीसरे दिन अर्धरात्रि के समय श्री राधा ने प्रगट होकर उनके शिर में लात मारी। ध्रुवदास जी चौंक कर उठ पड़े। उन्होंने नूपुर ध्वनि सुनी और उसके साथ ही ‘बानी भई जु चाहत कियौ, उठि सौ वर सब तोकौं दियौ।’ ‘ध्रुवदास जी ने कृतार्थ होकर गुण-गान आरंभ कर दिया। उन्होंने अनेक आर्ष पौरुष ग्रन्थों को देखा और श्रुति स्मृति पुराणों से नित्य प्रेम विहार को प्रमाणित किया। उनके हृदय में श्याम श्यामा की अनेक नई लीलायें प्रतिभासित हुई और रसिकों के लिये उन्होंने उन सबका प्रकाश अपनी वाणी में किया।’ ‘ध्रुवदास जी की वाणी का तात्कालिक सहृदय समाज पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा,
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज