हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 69

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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विशुद्ध प्रेम का स्वरूप

राधाबल्‍लभीय सम्‍प्रदाय में जिस विशुद्ध प्रेम की उपासना की गई है वह अत्‍यन्‍त उज्‍ज्‍वल एवं रंगीन तत्‍व है। रसिकों ने इसकी प्रकृति और प्रताप का बड़ा विशद वर्णन किया है, किन्‍तु कहीं भी इसका पृथक्‍करण करके इसके विविध अंगों का वर्गीकरण करने की चेष्‍टा नहीं की है। इन लोगों का मत है कि प्रेम वस्‍तुत: एक अंगविहीन ‘कौतुक’-अनिर्वचनीय पदार्थ है। यह जहाँ-कहीं भी उदित होता है, इसमें नाना रंग की तरंगें उठती रहती हैं और यह अंग-विहीन होते हुए भी सब अंगों का सुख देता रहता हैं।

पल पल औरै और विधि, उपजत नाना रंग।
सब अंगनि कौ देत सुख, यह कौतुक बिनु अंग।।

ध्रुवदास जी ने बतलाया है कि शुद्ध प्रेम का स्‍वरूप उज्‍जवलता, निर्मलता सरसता, स्निग्‍धता एवं मृदुता की सीमाओं के मिलने से बनता है। इसमें माधुर्य के मादक अंग नित्‍य प्रकाशित रहते हैं एवं दुर्लभता की तरंगें उठती रहती हैं। यह नित्‍य-नूतन, एक-रस एवं नित्‍य-नई रुचि उत्‍पन्‍न करने वाला होता है। यह अत्‍यन्‍त अनुपम, सहज, स्‍वच्‍छन्‍द एवं सोलहों कलाओं से सदैव पूर्ण रहता है। संसार में प्रेम की अनेक छटाएँ देखी जाती हैं और जिसकी जैसी रुचि होती है वह इसको वैसा ही समझ लेता है। वास्‍तव में, अद्भुत और सरस प्रेम वह है जिसके उदय के साथ मन को सम्‍पूर्ण एकाग्रता प्राप्‍त हो जाती है। जिसके दु:ख[1] की समता संसार का कोई सुख नहीं कर सकता, उसके सुख की गाति का वर्णन कौन कर सकता है? इस बात को समझ कर प्रेम के ऊपर चौदहों भुवन के राजसुख को न्‍यौछावर किया जा सकता है।

जहाँ लगि उज्‍जवल निर्मलताई, सरस सनिग्‍ध सहज मृदुलाई।
मादक मधुर माधुरी अंगा, दुर्लभता के उठत तरंगा।।
नूतन नित्‍य छिनहिं छिन माहीं, इक रस रहत घटत रुचि नाहीं।
अतिहि अनूप सहज स्‍वच्‍छन्‍दा पूरण कला प्रेमवर चन्‍दा।।
प्रेम की छटा बहु विधि आही, समुझि लई जिनि जैसी चाही।
अद्भुत सरस प्रेम निज सोई, चित्‍त चलनि की जिहिं गाति खोई।।
जिहि दुख सम नहिं और सुख, सुख की गति कहै कौंन।
वारि डारि ध्रुव प्रेम पर, राज चतुर्दश भौंन।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वियोग-दु:ख
  2. नेह-मंजरी

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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