हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 252

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
श्रीहरिराम व्‍यास (सं. 1549-1655)


श्रीहित हरिवंश-काल के दूसरे कवि श्रीहरिराम व्‍यास हैं। यह निर्विवाद रूप से श्रीहिताचार्य के शिष्‍य थे और उनके द्वारा स्‍थापित वृन्‍दावन रस-रीति को पल्‍लवित करने में उनके प्रधान सहयोगी थे। 'रसिक-अनन्‍यमाल' में व्‍यास जी का विशद चरित्र दिया हुआ है। यहाँ उस का गद्य रूपान्‍तर दिया जाता है।

चरित्र:- 'सब सुखों की राशि श्री चैतन्‍य के चरणों में प्रणाम करके मैं उल्‍लास पूर्वक व्‍यास-चरित गाना चाहता हूँ। मैं श्रीहित हरिवंश के चरणों में शिर नवाता हूँ और इसी बल से व्‍यास की कथा का गान करता हूँ। व्‍यास जी के पिता सुकल सुमोखन राजा और प्रजा द्वारा सम्‍मानित थे। व्‍यास जी पंडित और गुणवान थे। उनका मन गुरु करने को उत्‍सुक रहता था किन्‍तु वे गुरु ऐसा चाहते थे जो उनको भव-सागर से पार उतार दे। उनका मन कभी रैदास की ओर, कभी कबीर की ओर और कभी पीपा की ओर खिंचता था, कभी वे जय-देव का गान करते थे। इसी प्रकार, कभी उनको नामदेव का स्‍मरण आता था, कभी रंक-बंका का और कभी रामानंद गुसाई का। कभी उनका मन वृन्‍दावन के रसिक भक्‍तों की ओर खिचता था।

इस झमेले में कोई बात स्थिर न हो सकी और उनकी बयालीस वर्ष आयु व्‍यतीत हो गई। एक दिन नवलदास वैरागी उनके घर आये और उनसे मिलकर व्‍यास जी को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। व्‍यास जी ने उनको अपने पास रख लिया। नवलदास ने एक दिन सहज रूप से हित जी का एक पद गाया जो 'आज अति राजत दंपति भोर' से आरंभ होता है और जिसका अंतिम चरण इस प्रकार है,[1] हित हरिवंश लाल ललना मिलि हियो सिरावत मोर'। व्‍यास जी का रोम-रोम तन्‍मय हो गया। नवलदास जी ने पद-कर्त्ता का परिचय देते हुए बताया 'जिनके हृदय को 'जोरी'[2] शीतल करते हैं, उन श्रीहित हरिवंश ने विधि-निेषेध की सुदृढ़ श्रृखंला को तोड़ दिया है। वे शुद्ध-भक्ति के बल से योग, यज्ञ, जप, तप, व्रतादिक को तुच्‍छ मानते है।' इस अदभुत रीति को सुनकर व्‍यास जी के हृदय में हित-गुरु के प्रति प्रीति उत्‍पन्‍न हो गई।

ऐसी सुनी नवल मुखरीति-व्‍यास करी हितगुरु सों प्रीति।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जय श्री
  2. युगल

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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