श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
नाम
सोलहवीं शती की भक्ति संप्रदायों में नामोपासना के तीन रूप दिखलाई दिये-नाम-जप, नाम-गान और नाम-सेवा। नाम-जप अधिकतर एकान्त में किया जाता है और सर्वथा व्यक्तिगत वस्तु है। नाम-गान व्यक्तिगत की अपेक्षा-सामुदायिक अधिक है। नाम-गान को नाम-कीर्तन भी कहते हैं। सामुदायिक नाम-गान के द्वारा, चैतन्य महाप्रभु ने, बंगाल में भगवत-प्रेम की मंदाकिनी बहाई थी। दक्षिण के संतों ने भी नाम-गान पर खूब भार दिया है। राधावल्लभीय उपासना आरंभ से ही एकान्त व्यक्तिनिष्ठ रही है। यह प्रेम की उपासना है। श्री ध्रुवदास कहते हैं, ‘और सब भजन में गोष्ठी है, स्नेह में गोष्ठी कहा !’ समुदाय चाहे कितना भी अनुकूल क्यों न हो प्रेमी की इच्छा सबसे निराले रहने की ही होती है। प्रेम स्वरूप श्याम श्यामा भी प्रीति-परवश बनकर सखियों की भीड़ से न्यारे रहने की आकांक्षा करते हैं। वे सब सखियों की दृष्टि बचाकर प्रेम-गली को ही ताकते रहते हैं। ‘चलिरी भीरतँ न्यारेई खेलैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ केलिमाल- 100, 105
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