हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 194

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
नाम


हितप्रभु की रचनाओं में ‘रहस’[1] शब्द बार बार आता है। वे राधा कृष्ण की एकान्त प्रेम लीला के उपासक हैं। उनके भजन-प्रकार को समझते हुए नागरी दास जी कहते हैं, ‘श्री हरिवंश के मन में वह एकान्त भजन समा रहा था जिसमें परमहंसों के आधार स्वरूप रस-सार की धारा श्रवित होती रहती है।’

परमहंस आधार रससार धारा श्रवत,
भजन एकान्त जिन मन समानी।[2]

इस प्रकार के भजन में, स्वभावतः, सामुदायिक नाम कीर्तन को अवकाश नहीं है और वह इस संप्रदाय की विशेषता कभी नहीं रहा है। सेवक वाणी में नाम-जप किंवा नाम-रटन पर अत्यधिक भार दिया गया है। सेवक जी ने नाम-जप का अपना अनुभव बतलाते हुए कहा है कि नाम के रटने से ही मेरे हृदय में संपूर्ण शोभा आई है- ‘नाम रटत आई सब सोहि।’

सेवा की भाँति नाम-जप भी उपासक के हृदय के प्रेम के रूप को जगाता है। नाम-जप के द्वारा जगाया हुआ रूप कल्पित नहीं होता, सहज होता है। नाम के रूप के प्रकट होने की प्रक्रिया को श्री भोरी सखी ने अपने पद में सुन्दर ढंग से दिखलाया है। वे कहते हैं, ‘अविरत नाम-जप से जब इन्द्रिय और मन नाममय बन जाते हैं और समस्त विषयों का स्फुरण स्पष्ट हो जाता है, जब बाहर और भीतर नाम को छोड़कर अन्य कुछ शेष नहीं रह जाता और हृदय एवं नाम एक हो जाते हैं तब नाम का अपना रूप प्रकट होता है और उपासक के शरीर में ही सहज रूप में श्री वृन्दावन, अपने समस्त प्रीति-वैभव सहित, दिखलाई देने लगता है।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एकान्त
  2. श्री हरिवंशाष्टक

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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