श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
नाम
हितप्रभु की रचनाओं में ‘रहस’[1] शब्द बार बार आता है। वे राधा कृष्ण की एकान्त प्रेम लीला के उपासक हैं। उनके भजन-प्रकार को समझते हुए नागरी दास जी कहते हैं, ‘श्री हरिवंश के मन में वह एकान्त भजन समा रहा था जिसमें परमहंसों के आधार स्वरूप रस-सार की धारा श्रवित होती रहती है।’ परमहंस आधार रससार धारा श्रवत, इस प्रकार के भजन में, स्वभावतः, सामुदायिक नाम कीर्तन को अवकाश नहीं है और वह इस संप्रदाय की विशेषता कभी नहीं रहा है। सेवक वाणी में नाम-जप किंवा नाम-रटन पर अत्यधिक भार दिया गया है। सेवक जी ने नाम-जप का अपना अनुभव बतलाते हुए कहा है कि नाम के रटने से ही मेरे हृदय में संपूर्ण शोभा आई है- ‘नाम रटत आई सब सोहि।’ सेवा की भाँति नाम-जप भी उपासक के हृदय के प्रेम के रूप को जगाता है। नाम-जप के द्वारा जगाया हुआ रूप कल्पित नहीं होता, सहज होता है। नाम के रूप के प्रकट होने की प्रक्रिया को श्री भोरी सखी ने अपने पद में सुन्दर ढंग से दिखलाया है। वे कहते हैं, ‘अविरत नाम-जप से जब इन्द्रिय और मन नाममय बन जाते हैं और समस्त विषयों का स्फुरण स्पष्ट हो जाता है, जब बाहर और भीतर नाम को छोड़कर अन्य कुछ शेष नहीं रह जाता और हृदय एवं नाम एक हो जाते हैं तब नाम का अपना रूप प्रकट होता है और उपासक के शरीर में ही सहज रूप में श्री वृन्दावन, अपने समस्त प्रीति-वैभव सहित, दिखलाई देने लगता है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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