श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
वाणी
रसिकों की वाणियों में प्रेम-सौन्दर्य का वर्णन है। प्रेम-सौन्दर्य नेत्रों का विषय है और उसका वर्णन वाणी के द्वारा होता है। विधि का विधान ऐसा है कि नेत्रों को वाणी नहीं मिली है और वाणी को नेत्र नहीं मिले हैं। प्रेमियों ने प्रेम की बात कहने के लिये इस विधान को बहुत-कुछ अंशों मे शिथिल बना दिया है। उन्होंने नेत्रों को वाणी प्रदान की है और वाणी को नेत्र दिये हैं। उन्होंने वाणी के नेत्रों से प्रेम का अद्वय युगल-स्वरूप देखा है और नेत्रों की वाणी से उसका वर्णन किया है। बैननि के नैनानि सौं दरस्यौ युगल स्वरूप। जो लोग वाणियों का श्रवण करके प्रेम-सौंन्दर्य का आस्वाद करना चाहते हैं उनको अपने कानों से देखना होता है और आँखें से सुनना होता है। इस बात को स्पष्ट करते हुए श्री मोहन जी कहते हैं ‘मेरे कानों में जब तेरी बात पड़ी तब वह बात ही मेरे प्राण बन गई और जब मैंने कान में आई हुई बात के स्वरूप को देखा तब मेरे कान ही नेत्र बन गये। फिर तो मेरे यह कान रूप को सुनने लगे और वाणी को देखने लगे। इस प्रकार कभी तो यह कान रहते और कभी नेत्र बन जाते। जो देखता है वह इसी प्रकार देखता है और जो इस प्रकार देखता है वही देख पाता है। जो देखने और सुनने में अंतर रखते हैं वे अपनी इस अनसमझी से दिन-रात जलते रहते हैं। समझदारी का उदय उसी के चित्त में मानना चाहिये जो देखी हुई बात को सुन सके और सुनी हुई बात को देख सके।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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