श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
भक्ति में साहित्य की प्रयोजक बनने की शक्ति सहज रूप से विद्यमान है। वह एक मधुर और तीव्र अनुभूति है जो मानस में हलचल मचाकर मनुष्य को मुखरित कर देती है। साहित्य सर्जन के पीछे मनुष्य की वे विरल तीव्र अनुभूतियाँ ही हैं जो अपने साथ गान की विवशता लिये होती हैं। इन अनुभूतियों के विवश गायक को ही कवि कहा जाता है। चित्त में अनुभूतियों के द्वारा उठाई गई हलचल ‘भाव’ कहलाती है और भाव की चर्वणा ही, भारतीय साहित्य शास्त्र की दृष्टि में, साहित्य का एकान्त प्रयोजन है। सम्वेदन शील भक्तों के द्वारा भक्ति-भाव की चर्वणा ही भक्ति-साहित्य के रूप में उपलब्ध है। भारतवर्ष में ही नहीं, संसार में जहाँ कहीं भी भक्ति-भाव की निविड़ चर्वणा हुई है, उच्च साहित्य की सृष्टि हो गई है। इसके साथ भक्ति का एक यह भी स्वभाव है कि वह भक्ति की वैयक्तिक विशेषताओं, उसकी शिक्षा, संस्कार और परिस्थिति के अनुकूल बन कर अपनी अभिव्यक्ति करती है। श्रीमद्भागवत में बतलाया गया है कि भक्ति योग बहु-विध मार्गों से भावित होता है और मनुष्यों के विभिन्न स्वभाव गुण के कारण वह अनेक प्रकारों में विभेदित हो जाता है।[1] भक्तों की वाणियाँ और उनके चरित्र ही इसका प्रमाण हैं। दो भक्तों के चरित्र न तो सम्पूर्णतया एक से होते हैं और न उनकी वाणियाँ ही। एक ही सम्प्रदाय के अनुयायी भक्तों की वाणियों में भी स्वभाव-गुण-जन्य विशिष्टता दिखलाई देती है। व्यक्तित्व की विशिष्टता को लेकर ही अभिव्यक्ति की विशिष्टता खड़ी होती है। भक्ति अपने गायक के व्यक्तित्व को साथ लेकर अभिव्यक्त होती है अतः भक्ति साहित्य को व्यञ्जना की अपेक्षित बैचित्री सहज रूप से प्राप्त है और इसीलिये भक्ति साहित्य में वह स्वास्थ्य और ताजगी देखने को मिलती है तो किसी भी साहित्य को गौरव प्रदान कर सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत, 3-29-7
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