हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 31

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ


इस कार्य का सूत्रपात दशवीं शताब्‍दी में श्रीनाथ मुनि ने किया। उन्‍होंने योग और न्‍याय पर स्‍वतन्‍त्र ग्रन्‍थ लिखे और आलवार संतों की वाणियों के संग्रह ‘तमिल वेद’ का पुनरुद्धार किया। इन्‍होंने वैदिक सिद्धातों के साथ तामिल वेद के सिद्धान्‍तों का पूरा सामंजस्‍य दिखलाया एवं भक्ति के साथ वेद-प्रतिपादित ज्ञान और कर्म का समन्‍वय किया। इनके बाद इनके पौत्र श्री यामुनाचार्य ने वेदान्‍त पर ‘सिद्धित्रय’ नामक एक पौढ़ ग्रंथ लिखा एवं ‘आगम-प्रमाण्‍य’ में पांचरात्र की प्रामाणिकता का स्‍थापन सबल युक्तियों से किया। इस परम्‍परा की तीसरे प्रसिद्ध आचार्य श्री रामानुज हैं, जिन्‍होंने वैष्‍णव धर्म की प्रथम वेदान्‍त-सम्‍प्रदाय, विशिष्‍टाद्वैतवाद की स्‍थापना की एवं प्रस्‍थान-त्रय पर स्‍वमतानुकूल भाष्‍यों की रचना की। श्री रामानुज ने सारे भारवर्ष में घूम कर अपने सिद्धान्‍त का प्रचार किया और भागवत धर्म पर श्री शंकराचार्य द्वारा लगाये गये अवैदिकता के दोष को बहुत कुछ अंशों में मिटा दिया। श्री रामानुज का जन्‍म यद्यपि आलवारों की परम्‍परा में हुआ था। किन्‍तु निगम और आगम का समन्‍वय करने के कारण यह एवं इनके पूर्ववर्ती आचार्य ‘उभय वेदांती’ कहलाते हैं। बारहवीं शताब्‍दी में वैष्‍णवों के इस प्रथम वेदांत-सम्‍प्रदाय की स्‍थापना के बाद अगली चार शताब्दियों में अन्य तीन वैष्‍णव वेदान्‍त-सम्‍प्रदायों की स्‍थापना की गई। इन वैष्‍णव सम्‍प्रदायों ने भक्ति के स्‍वरूप को जिस दृष्टि से देखा उसी के अनुकूल वेदान्‍त-मत की स्‍थापना प्रस्‍थान त्रय पर भाष्‍य रचकर दी, और इस प्रकार, एक ही भक्ति-सिद्धान्‍त में अनेक वेदांन्‍त–मतों का समावेश हो गया एवं अन्‍य अनेकों के समावेश की संभावना बनी रही।

वेदान्‍त का सहारा पाकर भक्ति-सिद्धान्‍त की प्रतिष्‍ठा में काफी वृद्धि हुई और संस्‍कृताभिमानी विद्वज्जनों में उसका प्रचार भी खूब हुआ, किन्‍तु वेदान्‍त-दर्शन की समीक्षात्‍मक शैली भक्ति-भाव जैसी मानव हृदय की सुकोमल एवं मधुर अनुभूति के प्रकाशन में पूर्णतया समर्थ न हो सकी। भागवत-सिद्धान्‍त का विवेचन करने के लिये एक ओर तो वैष्‍णवाचार्यों को ठेठ दार्शनिक-शैली में ढालने के लिये उसकी नवीन ढंग से योजना करनी पड़ी। वैष्‍णवों की प्रथम वेदान्‍त-सम्‍प्रदाय की स्‍थापना के लगभग डेढ़ सौ वर्षो के भीतर ही, इस प्रश्‍न को लेकर, वैष्‍णवों में दो सर्वथा स्‍वतन्‍त्र मत उठ खड़े हुए। एक पक्ष आलवार संतों की प्रत्‍यक्ष अनुभूतियों पर आधारित ‘तामिल वेद’ को ही अन्तिम प्रमाण मानता था और ‘आचार्यो’ द्वारा संस्‍कृत भाषा में निवद्ध भक्ति-वेदान्‍त-ग्रन्‍थों पर आस्था नहीं रखता था। शुद्ध भक्ति के पक्षपाती इस मत का नाम ‘टेकंलै’ है। दूसरा पक्ष दोनों को प्रमाण कोटि में मानता था और संस्कृताभिमानी था। इस मत का नाम ‘वड़कलै’ है। कहा जाता है कि आज कल प्रथम मत का ही प्रसार दक्षिण भारत में विशेष रूप से दिखलाई पड़ता है।

वैष्‍णव-सिद्धान्‍त के उपस्‍थापन में ठेठ दार्शनिक शैली की अयुक्तता का भान इन महान आचार्यो को भली प्रकार था और श्री रामानुज ने वेदान्‍त ग्रन्‍थों के साथ ‘विष्णु पुराण’ को तथा श्री मध्‍व एवं निम्‍बार्काचार्य ने ‘भागवत पुराण’ को अपनी सम्‍प्रदायों में महत्‍व दिया। किन्‍तु प्रस्‍थान त्रय के समान ही श्रीमद्भागवत को प्रमाण-ग्रन्थ मानने का सर्वप्रथम श्रेय श्री वल्‍लभाचार्य को है। उन्‍होंने वेद, भगवद्गीता और ब्रह्म-सूत्रों के समान ही व्‍यास की ‘समाधि भाषा’ श्रीमद भागवत को अपनी सम्‍प्रदाय के लिये प्रमाण माना है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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