श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ
वेदान्त का सहारा पाकर भक्ति-सिद्धान्त की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई और संस्कृताभिमानी विद्वज्जनों में उसका प्रचार भी खूब हुआ, किन्तु वेदान्त-दर्शन की समीक्षात्मक शैली भक्ति-भाव जैसी मानव हृदय की सुकोमल एवं मधुर अनुभूति के प्रकाशन में पूर्णतया समर्थ न हो सकी। भागवत-सिद्धान्त का विवेचन करने के लिये एक ओर तो वैष्णवाचार्यों को ठेठ दार्शनिक-शैली में ढालने के लिये उसकी नवीन ढंग से योजना करनी पड़ी। वैष्णवों की प्रथम वेदान्त-सम्प्रदाय की स्थापना के लगभग डेढ़ सौ वर्षो के भीतर ही, इस प्रश्न को लेकर, वैष्णवों में दो सर्वथा स्वतन्त्र मत उठ खड़े हुए। एक पक्ष आलवार संतों की प्रत्यक्ष अनुभूतियों पर आधारित ‘तामिल वेद’ को ही अन्तिम प्रमाण मानता था और ‘आचार्यो’ द्वारा संस्कृत भाषा में निवद्ध भक्ति-वेदान्त-ग्रन्थों पर आस्था नहीं रखता था। शुद्ध भक्ति के पक्षपाती इस मत का नाम ‘टेकंलै’ है। दूसरा पक्ष दोनों को प्रमाण कोटि में मानता था और संस्कृताभिमानी था। इस मत का नाम ‘वड़कलै’ है। कहा जाता है कि आज कल प्रथम मत का ही प्रसार दक्षिण भारत में विशेष रूप से दिखलाई पड़ता है। वैष्णव-सिद्धान्त के उपस्थापन में ठेठ दार्शनिक शैली की अयुक्तता का भान इन महान आचार्यो को भली प्रकार था और श्री रामानुज ने वेदान्त ग्रन्थों के साथ ‘विष्णु पुराण’ को तथा श्री मध्व एवं निम्बार्काचार्य ने ‘भागवत पुराण’ को अपनी सम्प्रदायों में महत्व दिया। किन्तु प्रस्थान त्रय के समान ही श्रीमद्भागवत को प्रमाण-ग्रन्थ मानने का सर्वप्रथम श्रेय श्री वल्लभाचार्य को है। उन्होंने वेद, भगवद्गीता और ब्रह्म-सूत्रों के समान ही व्यास की ‘समाधि भाषा’ श्रीमद भागवत को अपनी सम्प्रदाय के लिये प्रमाण माना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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