हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 32

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ


श्रीमद् वल्‍लभाचार्य का शुद्धाद्वैत सिद्धान्‍त चौथा दार्शनिक वाद था, जो श्री शंकराचार्य के केवलाद्वैत के विरुद्ध स्‍थापित किया गया था। पिछली चार शताब्दियों में इस विरोध के फल स्‍वरूप विपुल दार्शनिक-साहित्‍य की रचना हुई थी और दोनों ओर का विद्वत समाज इस विवाद में ही अपने कर्त्तव्य की इति श्री समझ बैठा था। दक्षिण में वैष्‍णव-धर्म के उत्‍थान के लगभग समकाल में ही, उत्‍तर भारत मुसलमानों द्वारा पदाक्रान्‍त होने लगा था और सोलहवीं सदी तक आते-आते यह विदेशी आक्रमण भारतीय धर्म, समाज एवं संस्‍कृति के क्षेत्रों तक पहुँच चुका था। राजनैतिक पराजय के साथ सांस्‍कृतिक पराभव का भय उपस्थित था। ऐसे कठिन समय में, जबकि भारतीयों की अजेय आत्‍मश्रद्धा भी डगमगा उठी थी, मनुष्‍य के दैनदिन जीवन से अलग पड़े दार्शनिक विवादों का उपयोग अधिक नहीं था उस। उस समय का पीडित एवं त्रस्‍त जन-समाज किसी ऐसी जाग्रत ज्‍योति को खोज रहा था। जो उसके जीवन की विभीषिका को दूर करके, उसको शाश्‍वत सुख-शान्ति का मार्ग दिखला सके।

विनाश के द्वार पर खड़ी हुई हिन्‍दू जाति एवं संस्‍कृति की रक्षा के लिये, पन्‍द्रहवीं शताब्‍दी के प्रारंभ से ही, देश के हर भाग में समर्थ संतों का का प्रादुर्भाव होने लगा था, जो विभिन्‍न मार्गो से एक ही लक्ष्‍य की ओर धावित थे। विभिन्‍न रुचि एवं स्‍वभाव के कारण इन संतों की साधना पद्धति में परस्‍पर कितना भी भेद रहा हो किन्‍तु वे सब धर्म को स्‍थापित परम्‍पराओं के जाल से निकाल कर मनुष्‍य जीवन के निकट लाने के लिये समान रूप से प्रयत्‍नशील थे। यह कार्य उन्‍होंने अपनी वाणी एवं व्‍यक्तित्‍व में भगवत्-प्रेम को प्रत्‍यक्ष करके किया। प्रेम के समान अन्‍य कोई वस्‍तु मनुष्‍य जीवन के निकट नहीं है और जीवन में प्रेम का स्‍वरूप जितना उदात्त होता है, जीवन उतना ही उन्‍नत होता है। प्रेम-भक्ति को परम धर्म का स्‍वरूप बतला कर इन संतों एवं आचार्यो ने धर्म को, उसके साथ जुड़ी, अनेक दार्शनिक एवं कर्मकाण्‍ड-सम्‍बन्धिनी विडम्‍बनाओं से बचा लिया और उसको अपनी स्‍वाभाविक स्थिति में स्थित कर दिया।

उत्‍तर भारत में भागवत-धर्म को अनावश्‍यक बन्‍धनों से मुक्‍त करने वाले प्रथम संत श्री रामानंद स्‍वामी हैं इनके शिष्‍य कबीरदास जी ने निर्गुण-भक्तिवाद नींव रखी, जो अपनी उदारता के लिये प्रसिद्ध है इन्‍होंने भक्ति सम्‍बंधिनी अपनी अनुभूतियों का वर्णन-लोक भाषा में किया एवं धर्म को लोक जीवन से अलग रखने वाले पंडितों का विरोध वे जीवन भर करते रहे। तत्‍कालीन इतिहास के विद्वानों ने बतलाया है कि कबीरदास जी के जन्‍म के समय उत्‍तर भारत में कई धार्मिक शक्तियां काम कर रही। कबीरदास जी की भक्ति का आलम्‍बन इतना विशाल है कि उसके महात्‍मय- थीं और, स्‍वभाविकतया, कबीर के भक्तिवाद पर उनका प्रभाव पड़ा है ज्ञान को एक क्षण के लिये भी विस्‍मृत नहीं किया जा सकता। उस आलम्‍बन का नाम ‘राम’ होते हुए भी वह गोस्‍वामी तुलसीदास के जन-मन-हारी राम से भिन्‍न है। महात्‍म्‍य-ज्ञान की प्रखरता उपासक को श्रद्धावनत कर सकती है , उसके चित्‍त का बल-पूर्वक हरण नहीं कर सकती। इसके लिये प्रीति को ऐसे आलम्‍बन की आवश्‍यकता होती है जो प्रीति का स्‍वरूप हो और प्रीति की सम्‍पूर्ण सुषमा एवं मनोहारिता लिये हो। ऐसा आलम्‍बन ही बलपूर्वक प्रीति को अपने प्रति केन्द्रित रख सकता है और अपनी शक्ति से सुप्‍त प्रीति को उद्बुद्ध कर सकता है। ऐसे आलम्‍बन को पाकर भक्‍त की असहायता उसका सबसे बड़ा बल एवं उसकी निर्व्‍याज दीनता उसका सबसे बड़ा आकर्षण बन जाते हैं। दीन एवं असहाय जन समाज को ऐसे ही प्रेममय आलम्‍बन की आवश्‍यकता थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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