हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 30

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ


आगमों का प्रथम कार्य वेदों के हिंसा-बहुल यज्ञों के स्‍थान में हिंसा-शून्‍य यज्ञों का प्रचार करना था और दूसरा कार्य विष्‍णु किंवा नारायण को परम तत्‍व मानकर एक सरस एवं समृद्ध उपासना-पद्धति का विकास करना था। आगमों में वेद प्रतिपादित आध्‍यात्मिक रहस्‍यों का स्‍वतंत्र दृष्टि से विचार किया गया है और यह विचार-स्‍वातंत्र्य प्रारंभ से ही वैष्‍णव धर्म की विशेषता रही है। विशाल दृष्टिकोण एवं परिवर्तित परिस्थिति के अनुकूल बनने की अपनी अद्भुत क्षमता के कारण यह धर्म भव-विप्‍लव में पड़े हुए जीवों को, हर युग मे, सांत्‍वना एवं श्रेय का मार्ग बतलाता है रहा है और बाहर से आई हुई बर्बर-जातियों को, भी अपनी ओर आकर्षित करके, अत्‍मसात करता रहा है वैष्‍णव धर्म ने जैन एवं बौद्ध धर्मो के उत्‍थान पतन को देखा है और दोनों को अपने उदार सिद्धान्‍तों से प्रभावित किया है। अपने विकास की अनेक भूमिकाओं से गुज़रता हुआ यह धर्मगुप्त सम्राटों के काल में भारतवर्ष का राज-धर्म बना था और स्‍वयं गुप्‍त सम्राटों ने ‘परमभागवत’ की उपाधि ग्रहण की थी। इस बात के प्रचुर प्रमाण मिलते हैं कि गुप्‍त साम्राज्‍य के छिन्‍न-भिन्‍न होने के बाद मध्‍य भारत के अनेक राजानकों ने इस धर्म को अपना राज-धर्म बनाया था और काश्मीर से लेकर द्रविड़ देश तक इस धर्म के उपास्‍य देवों एवं उपासना-पद्धति का प्रचार था। बौद्धों के महायान सम्‍प्रदाय एवं भागवत धर्म में अनेक बातों में समानता है और दोनों अनेक शताब्दियों तक उत्तर भारत में साथ-साथ फूलते फलते रहे थे, किन्‍तु बौद्धों के दार्शनिक सम्‍प्रदाय वैदिक-धर्म के मौलिक सिद्धान्‍तों पर बराबर आघात करते रहते थे और यह बात वैदिक विद्वानों कि चिन्‍ता का विषय बनी हुई थी।

ईसा की आठवीं शताब्‍दी में अपूर्व विचारक श्री शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ और उन्‍होंने उपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं भगवद गीता को प्रस्‍थान बनाकर एक ऐसे दार्शनिक सिद्धांत की स्‍थापना की जो बौद्ध सिद्धान्‍त के साथ कुछ दूर तक जाकर उसका खंडन करता है। अपने सिद्धान्‍त के लिये श्री शंकराचार्य ने केवल निगमों[1] के प्रमाण्‍य को स्वीकार किया है, और आगमों को प्रामाणिक नहीं माना है। श्री शंकराचार्य के प्रयासों से वेदान्‍त-दर्शन को एक नवीन चेतना प्राप्‍त हुई किन्‍तु मुख्‍यतया आगमों पर आधारित भागवत धर्म को आघात पहुँचा।

श्री शंकराचार्य का जन्‍म दक्षिण में हुआ था और वहां, उनके जन्‍म में अनेक शताब्‍दी पूर्व से, विष्‍णु भक्‍त आलवार संतों की एक परम्‍परा चली आ रही थी। इस परम्‍परा मं बारह संत हुए हैं, जिन्‍होंने अपनी प्रत्‍यक्ष अनुभूति के आधार पर अपनी देश भाषा[2] में भक्ति का गान किया है। इन संतों का प्रभाव वहाँ के साधारण जन-समाज पर तो था ही, समाज के उच्‍च स्‍तर भी इनके द्वारा प्रदर्शित दिव्‍य आलोक से आलोकित थे। स्‍वयं आलवारों में नम्म आलवार किंवा षट्कोप स्‍वामी एक राजपुत्र थे और कुलशेखर आलवार केरल के राजा थे। आलवार संतों ने अपनी रचनाओं में स्‍थान-स्‍‍थान पर वेदों एवं वैदिक धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है किन्‍तु उन्‍होंने नाम स्मरण, इष्‍टाराधन एवं नवधा भक्ति मार्ग को ही भव-संतरण का एक मात्र उपाय बतलाया है। इन संतों की वाणियों में दार्शनिकता का उतना ही पुट पाया जाता है जितना भक्ति-भाव की दृढ़ता के लिये आवश्‍यक है और वह पांचरात्र सिद्धान्‍त के अनुसार है। श्री शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदान्‍त-दर्शन के साथ भागवत धर्म को सुदृढ़ दार्शनिक आधार पर स्थित करने की आवश्‍यकता दाक्षिणात्‍य विद्वानों को प्रतीत हुई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वेदों
  2. तमिल

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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