श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ
ईसा की आठवीं शताब्दी में अपूर्व विचारक श्री शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने उपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं भगवद गीता को प्रस्थान बनाकर एक ऐसे दार्शनिक सिद्धांत की स्थापना की जो बौद्ध सिद्धान्त के साथ कुछ दूर तक जाकर उसका खंडन करता है। अपने सिद्धान्त के लिये श्री शंकराचार्य ने केवल निगमों[1] के प्रमाण्य को स्वीकार किया है, और आगमों को प्रामाणिक नहीं माना है। श्री शंकराचार्य के प्रयासों से वेदान्त-दर्शन को एक नवीन चेतना प्राप्त हुई किन्तु मुख्यतया आगमों पर आधारित भागवत धर्म को आघात पहुँचा। श्री शंकराचार्य का जन्म दक्षिण में हुआ था और वहां, उनके जन्म में अनेक शताब्दी पूर्व से, विष्णु भक्त आलवार संतों की एक परम्परा चली आ रही थी। इस परम्परा मं बारह संत हुए हैं, जिन्होंने अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के आधार पर अपनी देश भाषा[2] में भक्ति का गान किया है। इन संतों का प्रभाव वहाँ के साधारण जन-समाज पर तो था ही, समाज के उच्च स्तर भी इनके द्वारा प्रदर्शित दिव्य आलोक से आलोकित थे। स्वयं आलवारों में नम्म आलवार किंवा षट्कोप स्वामी एक राजपुत्र थे और कुलशेखर आलवार केरल के राजा थे। आलवार संतों ने अपनी रचनाओं में स्थान-स्थान पर वेदों एवं वैदिक धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है किन्तु उन्होंने नाम स्मरण, इष्टाराधन एवं नवधा भक्ति मार्ग को ही भव-संतरण का एक मात्र उपाय बतलाया है। इन संतों की वाणियों में दार्शनिकता का उतना ही पुट पाया जाता है जितना भक्ति-भाव की दृढ़ता के लिये आवश्यक है और वह पांचरात्र सिद्धान्त के अनुसार है। श्री शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदान्त-दर्शन के साथ भागवत धर्म को सुदृढ़ दार्शनिक आधार पर स्थित करने की आवश्यकता दाक्षिणात्य विद्वानों को प्रतीत हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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