श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
उज्ज्वल भक्ति-रस के कथन के लिये भक्त कवियों ने श्रृंगार रस की प्रचलित रीति में अनेक संशोधन और परिवर्धन किये। किन्तु वह संशोधित रस रीति भी नित्य प्रेम को प्रगट करने में पूर्णतया समर्थ नहीं हो सकी। नित्य प्रेम से सम्बन्धित लीला निकुंज लीला है। इस लीला में प्रेम का नित्य एक-रस रूप प्रगट होता है। निकुंजलीला का गान गौड़ीय महानुभावों ने भी किया है और पुष्टि सम्प्रदाय के महात्माओं ने भी। किन्तु इन दोनों सम्प्रदायों द्वारा अंगीकृत उज्ज्वल रस की संशोधित पद्धति में निकुंज-लीला की पूर्ण एक-रसता की व्यंजना नहीं हो पाती। श्रीहित हरिवंश ने प्रचलित पद्धति को संशोधित रूप में भी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपनी विशिष्ट रस-दृष्टि के आधार पर नित्य विहार की एक स्वतंत्र रस-रीति की स्थापना की जिसमें नित्य लीला की धारावाहिकता एवं एक-रसता को प्रकाशित करने की अमित क्षमता रही हुई है। श्रीहित प्रभु ने सोलहवीं शती के अंतिम दशक में इस रस-रीति को अपनी वाणी में प्रदर्शित किया और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक अनेक कवि-महात्माओं ने इसको ग्रहण करके पल्लवित कर दिया। फलतः इस रस-रीति का निर्वाह करने वाले साहित्य की एक प्रवल धारा वृन्दावन से प्रवाहित हो गई, जिसका प्रभाव व्रज के अन्य भक्ति रस-साहित्य पर पड़ना अनिवार्य था। इस रस रीति का वर्णन हम द्वितीय अध्याय में कर चुके हैं। यहाँ यह देखना है कि इसके अनुरोध से राधावल्लभीय साहित्य की रचना में क्या विशिष्टता उत्पन्न हुई है। वृन्दावन रस के रसिकों ने भी राधा- कृष्ण की उज्ज्वल प्रेम-लीला का गान किया है। प्रेम में द्वित्व और एकत्व दोनों रहते हैं। न तो इसमें द्वित्व का निषेध किया जा सकता है और न एकत्व का। इसमें द्वित्व का पर्यवसान एकत्व में और एकत्व का आस्वाद द्वित्व में होता है। प्रेम के वर्णनों में, साधारणतया द्वित्व का पर्यवसान एकत्व में दिखलाया जाता है। राधाकृष्ण की प्रेम लीला के वर्णनों में भी प्रेमोदय किंवा पूर्वराग, विरह, मिलन के क्रम का ही निर्वाह किया गया है। अधिकांश रसिक भक्तों ने संभोग श्रृंगार में ही प्रेमास्वाद की पराकाष्ठा मानी है क्योंकि उसी में प्रेमी और प्रेमपात्र का सम्पूर्ण एकत्व सम्पन्न होता है। राधावल्लभीय रसिकों ने राधाकृष्ण के एकत्व को सहज और नित्य सिद्ध माना है और उस एकत्व के आस्वाद के लिये द्वित्व को आवश्यक बतलाया है। परिणामतः जहाँ अन्य भक्त-कवि अनेक अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों में राधाकृष्ण का मिलन कराकर प्रेम का उत्कर्ष दिखलाते है, वहाँ वृन्दावन-रस के रसिक इन दोनों को एक से दो बनाकर प्रेम की लीला को अक्षुण्ण रखते हैं। इनकी दृष्टि में इन दोनों का प्रेम इस प्रकार का है कि इनका मिलकर एक बन जाना उतना दुर्लभ नहीं है जितना अपने सहज एकत्व को छोड़कर एक से दो बनना। ‘हित चतुरासी’ के प्रथम पद में ही इस तथ्य को स्पष्ट कर दिया गया है। इस पद में श्रीराधा अपने और अपने प्रियतम के प्रेम को तौलती हुई दिखलाई देती हैं, किन्तु कई बार चेष्टा करने पर भी दोनों का प्रेम समान बलशाली ही दिखलाई देता है। चेष्टा को विफल होता देखकर, पद के अन्त में, श्रीहित हरिवंश कहते हैं कि तुम दोनों ‘सांवल और हंस-हंसनी’ एक दूसरे में जल और तरंग की भाँति ओतप्रोत हो, तुमको कौन ‘न्यारा’ कर सकता है? हित हरिवंश हंस-हंसनी साँवल-गौर कहौ कौन करै जल तरंगनि न्यारे।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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